दिल्ली शहर में दीनदयाल नामी एक पुराना व्यापारी रहता था। उसका कारोबार बहुत बड़ा था जिस कारण उसकी ख्याति दूर देशों तक पहुँचती थी। एक समय उसकी कई हुण्डियॉं एक साथ सकरनी पड़ी और उसके पास रूपया आने में तीन चार दिनों की देर थी। जो कुछ पास था उससे रोकड़ मिलाने पर पॉंच लाख रूपये की कमी पड़ती थी। जब दीनदयाल को मौके पर रूपये का प्रबंध होना असंभव दीख पड़ा तो अपने मुनीम को हुण्डी वालों का हिसाब किताब मिलान करने की आज्ञा देकर आप रूपये की तलाश में बाहर निकला। उस समय नगर में एक महाजन के अतिरिक्त ऐसा दूसरा कोई बड़ा महाजन नहीं था जो एक मुस्त पॉंच लाख की थैली ऊधार देता। दीनदयाल ने उसी से कर्ज लेकर हुण्डी सकर देने का निश्चय किया। वह साहूकार बड़ा धूर्त, दुष्ट और निर्दय था, परंतु लाचार, कोई दूसरी सूरत न सूझ पड़ने पर दीनदयाल को उसके द्वारा पर कर्ज के निमित्त जाना पड़ा। दीनदयाल ने उस महाजन से बारह दिनों की अवधि पर पॉंच लाख रूपये कर्ज मॉंगा। उसका विश्वास था की उपरोक्त समय के अंतरागत उसके पास बहुत सा रूपया आ आवेगा। उसने मारवाड़ी को उसकी इच्छानुसार सूद देने का पक्का विचार कर लिया था। केशवदास बराबर दीनदयाल को समूल नष्ट करने की चेष्टा में लगा रहता कारण की उसका और दीनदयाल का व्यापरिक द्वेष था। दीनदयाल का कारोबार इतना बड़ा और समुन्नत (उन्नत) था कि उसके आगे दूसरे व्यापारियों का व्यापार चलना कठिन था। दीनदयाल नि:संतान था अतएव अगले डाह (ईर्ष्या) के कारण मारवाड़ी इस घात में लगा हुआ था कि यदि किसी प्रकार दीनदयाल मारा जाय तो फिर उसका कारोबार भलीभॉंति चल निकले।
ऐसी ईर्ष्या वश केशवदास उसको अपने पंजे में फंसा लेना चाहता था। उसे विश्वास था कि यदि वह रूपये न देगा तो दीनदयाल की इतनी ख्याति है कि कहीं न कहीं से रूपये अवश्य प्राप्त कर लेगा। सुअवसर आया देख उसने अपनी दुष्ट प्रकृत्यानुसार एक तरकीब खूब सोच विचारकर निकाली और दीनदयाल से बोला- महाशय जी! आज आप कर्ज लेने के विचार से पहले पहल मेरे द्वार पर आये हैं अतएव मैं इतने अल्प समय के लिये रूपयों का सूद लेना उचित नहीं समझता परंतु इसके साथ आपको भी मेरी एक शर्त माननी पड़ेगी। यदि आप एक हफ्ते में मेरे रूपये वापस न कर देंगे तो मैं अपने हाथ से आपके शरीर के किसी भी भाग से एक सेर मांस काटकर निकाल लूँगा।
दीनदयाल ने रूपया लौटाने के पहले ही से इतना थोड़ा समय रखा था कि उसके अंतरगत उसका लौटाया जाना कठिन था। अब तो मारवाड़ी ने तीन दिनों की अवधि और कम कर दी। परंतु हुण्डी सकरने की कोई दूसरी सूरत न देख दीनदयाल को लाचार होकर मारवाड़ी के शर्तनामे पर हस्ताक्षर कर रूपये लेने पड़े। घर पहुँचकर उन रूपयों से उसने हुण्डी की रकम अदा कर दी। लेनदार रूपये पाकर लौट गये और ईश्वर की कृपा से उसकी धाक जस की तस बनी रही।
दीनदयाल को किसी कार्य विशेष के कारण एक दूसरे नगर जाना पड़ा। जब लौटकर घर आया तो उसको मारवाड़ी के रूपये चुकाने की बात याद आई। इतने अल्प समय में उसके पास पॉंच लाख रूपये इकत्रित नहीं हुये थे, फिर भी इधर-उधर से संग्रह कर सूद के सहित रूपये लेकर उसके पास गया। मारवाड़ी तो एक सेर मांस का भूखा था, इधर शर्तनामें की तिथि भी बीत चुकी थी इसलिये रूपया लेने से साफ इनकार कर दिया और शर्तनामें के अनुसार उससे एक सेर मांस मॉंगा। दीनदयाल बाहर जाकर अस्वस्थ हो गया था अब मांस देने की चिन्ता से और भी बीमार हो गया। बीमारी के बहाने से टाल मटोल में दो तीन दिन का समय और निकल गया।
अब महाजन ने देखा कि इस प्रकार काम बनना कठिन है तो वह शर्तनामे को पेशकर अदालत से एक सेर मांस पाने के लिये दादख्वाह हुआ। दीनदयाल तलब किया गया। वह लाचार होकर बीमारी की हालत में पालकी में बैठकर न्यायालय में उपस्थित हुआ।
मुकदमा पेश हुआ, काजी ने दीनदयाल से पूछा- क्या इस शर्तनामें के मुताबिक तुमने इस मारवाड़ी से एक हफ्ते की मुद्दत पर पॉंच लाख रूपये उधार लिये हैं? शर्तनामें में लिखा है- कि यदि निर्धारित समय के अंतर्गत रूपये न चुका सकोगे तो मारवाड़ी के इच्छानुसार तुम्हें अपने शरीर के किसी भाग का एक सेर मांस देना पड़ेगा। वह इतना विख्यात व्यापारी होकर झूठ नहीं कहना चाहता था। इसलिये बोला- काजी साहब! शर्तनामे की बात सही है, उस समय मुझसे और मारवाड़ी से ऐसी ही शतें तय पाई थी, परंतु इस समय मैं मय सूद के इसका रूपया अदा करने को प्रस्तुत हूँ। पहले भी एक बार नौकर के हाथ रूपया सूद के सहित भेज दिया था, परंतु यह रूपया लेने से इंकार कर मेरे से एक सेर मांस मॉंगता है। सरकार इस पर भलीभॉंति विचारकर उचित न्याय करें।
साहूकार और दीनदयाल के अंतरगत जय पाई शर्तो को सुनकर काजी बोला- इसका न्याय अब हमारे बूते का नहीं है, न्याय तो तुम्हारा शर्तनामा ही कर रहा है। मैं हुक्म देता हूँ कि यह मारवाड़ी इसी समय आपके शरीर का एक सेर मांस अपनी इच्छानुसार काटकर ले लेवे। दीनदयाल के रहे सहे होस हवास भी जाते रहे। बड़ा चिन्तित हुआ अंत में कुछ सोच समझकर काजी से बोला- मैं इस मामले को शहनशाह के पास ले जाऊँगा, कृपया आप अपने आर्डर को तब तक के लिये मंसूख रखें जब तक कि वहॉं से कुछ फैसला न हो जावे। काजी को लाचार होकर उसकी अर्जी मंजूर करनी पड़ी। उस मारवाड़ी को एक महीने की मुद्दत देकर काजी ने अपना काम समाप्त किया।
दीनदयाल दूसरे ही दिन बादशाह की अदालत में समय से पेस्तर जा पहुँचा, और बादशाह को अदब से सलाम कर उदास मुख एक तरफ आसन लगाकर बैठ गया। उस समय बादशाह अपने फौज का प्रबंध कर रहे थे। जब वह काम शेष हो गया तो उनकी दृष्टि दीनदयाल पर पड़ी। उसका चेहरा उतरा हुआ देखकर बादशाह ने उसके उदासी का कारण पूछा। दीनदयाल अपने और मारवाड़ी के बीच जो कुछ मामला चल रहा था ब्योरेवार कहकर समझाया। यह एक नवीन घटना थी, सुनकर बादशाह दंग हो गया। वह इस सौदागर को भलीभॉंति जानता था, वह दिल्ली नगर का बहुत प्राचीन व्यापारी था। उसने अनेक औसरों पर अपना तन धन लगाकर सरकारी सहायता की थी। जिस कारण बादशाह को उसकी दशा पर बड़ी तर्श आई और उसकी रक्षा का भार स्वयं अपने शिर लिया। तत्क्षण साहूकार को घर जाने की आज्ञा देकर आप दीवानखाने में पहुँचे। बीरबल स्वागत के लिये अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और बादशाह उसकी बगल में एक कुर्सी पर जा बैठे। दोनों में अंतरंग गोष्टी होने लगी।
बादशाह बीरबल को दीनदयाल का सारा कच्चा चिट्ठा सुनाकर बोला- बीरबल! इस साहूकार का न्याय ऐसी युक्ति से करो, जिसमें उसकी जान बचे और अन्याय भी न हो, मैं इसकी दैन्य दशा पर बड़ा चिन्तित हो रहा हूँ। बीरबल बोला पृथ्वीनाथ! चिन्ता करने की कोई बात नहीं है आपकी आज्ञा का यथोचित पालन करूँगा। उधर वे बीरबल को समझा कर अपनी सभा में पहुँचे इधर बीरबल उसके छुटकारे की तरकीब सोचने लगा। एकाएक उसका चेहरा प्रफुल्लित हो गया और फिर अपने कार्य में दत्तचित्त हुआ।
उधर केशवदास मारवाड़ी को भी नींद नहीं आती थी, वह तो दीनदयाल के पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ था पॉंच छ: दिनों की मुहलत देकर फिर बादशाह की अदालत में दावा दायर किया- शर्त के मुताबिक अदालत दीनदयाल से उसके शरीर का एक सेर मांस दिलवा दे। बीरबल इस अभियोग का न्यायाधीश बनाया गया। वह बादशाह की आज्ञा स्वीकार करते हुए बोला- पृथ्वीनाथ! मैं यथाशीघ्र इसका न्याय करने का प्रयत्न करूँगा।
वह मारवाड़ी को एक ठौर बैठाकर दीनदयाल को बुलाने के लिये एक कर्मचारी को भेजा। जब आया तो उसे मारवाड़ी के सामने खड़ा कराकर बीरबल ने पूछा- क्या तुम्हें अपना रूपया लेना मंजूर नहीं है? मारवाड़ी रूपया लेना नहीं चाहता था इससे साफ इनकार कर दिया। तब बीरबल ने कहा- मुझे काजी का फैसला शर्तनामे के बमूजिव स्वीकार है अत: मारवाड़ी को हुक्म देता हूँ कि सौदागर के शरीर से एक सेर मॉंस का टुकड़ा अपने हाथ से निकाल ले, परंतु ध्यान रहे अगर टुकड़ा जरा भी छोटा बड़ा हुआ कि वह सकुटुंब जान से मारा जावेगा। घर बार तथा उसका सारा कोष उसी अपराध के कारण जब्त कर लिया जायेगा।
इस विज्ञप्ति से मारवाड़ी दहल गया और उससे कुछ उत्तर देते न बना। बीरबल उसे चुप देखकर जवाब के लिये बार-बार उत्तेजित करने लगा। तब वह बोला- दीवान जी! मुझे मॉंस लेने की ख्वाहिश नहीं है, मैं केवल पॉच लाख रूपये लेकर अपने मामले को उठा लेना चाहता हूँ, सूद भी छोड़े देता हूँ। बीरबल ने कहा- यह हरगिज नहीं हो सकता, तुम्हें मांस का टुकड़ा ही लेना पड़ेगा, क्योंकि पहले तू साहूकार से रूपये लेना नामंजूर कर चुका है। यदि तूँ शर्तनामें के अनुसार मॉंस न लेगा तो राजाज्ञा भंग करने के अपराध में तुझे सात लाख रूपये जुरबाने लगेंगे। इस बार खूब सोच समझ कर उत्तर दो, दोनों बातों में किसे मंजूर करते हो और किसे नामंजूर? मारवाड़ी गरदन नीची करके बोला- दीवान जी! मुझे कुछ भी नहीं चाहिये।
बीरबल ने कहा- जो तू अब कुछ भी नहीं लेना चाहता तो तुझे पहले की राजाज्ञा न मानने के अपराध में सात लाख रूपये दण्ड देने पडेंगे, और दूसरा अपराध यह है कि तूने दीनदयाल को कष्ट पहुँचाने की नीयत से उसके शरीर का मांस काट लेने की शर्त करायी थी, इस कारण चार साल की सजा और भुगतनी पड़ेगी। मारवाड़ी के होश ठिकाने न रहे। राजदूत बीरबल की आज्ञा से उसे पकड़ लिये और वह उसी क्षण जेलखाने में बंद कर दिया गया। मारवाड़ी के घर वालों से सात लाख रूपये वसूल किये गये। बीरबल के इस न्याय को सुनकर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और बीरबल के बुद्धि की प्रशंसा की।
चूँकि दीनदयाल नेकनीयती कर पहले ही उसके पास रूपये भेज दिये था, इसलिये उसकी दूकान की प्रतिष्ठा रखने के लिये बादशाह ने उसको पारितोषिक देकर विदा किया। जो रूपये मारवाड़ी से दंड में लिये गये थे वह बीरबल को मिले।
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