बीरबल की चतुरता!
एक बार आश्विन के महीने में बीरबल बीमार पड़ा जिस कारण महीनों दरबार में नहीं आया। एक दिन बादशाह को उसे देखने की इच्छा हुई। वह दो कर्मचारियों के साथ उसके मकान पर गया। बीरबल बादशाह को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसका कुम्हिलाया हुआ हृदय कमल कुछ खिल सा गया। ये आपस में बड़ी देर तक बार्तालाप करते रहे न बीरबल बादशाह को छोड़ना चाहता था और न बादशाह बीरबल को ही, बातचीत में कई घंटों का समय व्यतीत हो गया। इसी बीच बीरबल को पाखाना मालूम हुआ। ऐसी विवशता के कारण वह बादशाह से कुछ देर की मुहलत लेकर बगल की एक कोठरी में पाखाना फिरने गया।
इस बीच बादशाह के जी में बीरबल के बुद्धि-परीक्षा की बात समाई, उसने ख्याल किया कि बीरबल महीनों से बीमार है, शायद उसकी चतुरता में कुछ कमी पड़ गयी हो। जानना चाहिये कि अब यह कितना चतुर रह गया है। नौकरों द्वारा उसके पलंग के चारों पायों तले चार कागज के टुकड़े रखवा कर खामोश रहा। थोड़ी देर बाद बीरबल पाखाने से लौटकर आया और अपनी पलंग पर लेट गया। बादशाह उसकी परीक्षा के अभिप्राय से इधर-उधर की बातें छेड़कर उसे भुलावा देने लगा।
बीरबल एक तरफ बादशाह की बातें सुनता जाता था, दूसरी तरफ किसी चीज की खोज में व्यस्त था। वह ऊपर नीचे इस प्रकार से देख रहा था मानों किसी चीज का अनुसंधान कर रहा हो। बादशाह ने उसकी उसक पुसक का कारण पूछा। बीरबल ने कहा- पृथ्वीनाथ! जान पड़ता है कि यहॉं पर कुछ रक्को बदल हो गया है! वे अनजान सा मुँह बनाकर बोले- क्या रक्को बदल हुआ है? बीरबल ने उत्तर दिया- मुझे मालूम होता है कि या तो इस मकान की दीवाल कागज भर नीचे को दब गई है या मेरी पलंग एक कागज ऊँची हो गई है। बादशाह ने कहा- हॉं हॉं अक्सर देखा जाता है कि बीमारी की दशा में निर्बलता के कारण लोगों के दिमाग में तुम्हारे समान ही फितूर आ जाता है परंतु दरअसल में वह बात ठीक नहीं रहती। बीरबल ने उत्तर दिया- ऐसा नहीं हो सकता, मैं बीमार हूँ तो मेरी बुद्धि बीमार नहीं है। बादशाह बीरबल की पहले ही सी चतुरता देखकर बड़ा प्रसन्न हुए और उससे असली भेद प्रकट कर दिया।
अपनी मनमानी दूँगा!
दिल्ली का एक नागरिक बड़ा सूम था। वह अपने परिश्रम और कृपणता के कारण रत्नों का एक बड़ा कोष संग्रह किये हुए था। वह उन रत्नों को एक ऐसी साधारण संदूक में छिपाकर रखे हुए था कि जिससे देखने वाले को उसमें रत्न होने का भ्रम न हो सके। उसका घर भी साधारण गृहस्थों के समान कच्चा और टूटा फूटा हुआ था। भला ऐसे भग्न मकान में रत्न होने की कौन संभावना कर सकता था? दैवात एक दिन मध्य रात्रि में उसके घर में आग लगी। कंजूस उस आग को बुझाने की कोई तरकीब न देख कर कुछ साधारण वस्त्रों को लेकर घर से बाहर निकल आया। ये वस्त्र उसके रोजमर्रा के काम आने वाले थे। घर जलने की चिन्ता में बिचारा कंजूस छाती पीट-पीटकर रूदन करने लगा। उसके रोने का शब्द सुन और आग की लपट देखकर उसके अड़ोस-पड़ोस के बहुतेरे आदमी इकत्र हो गये। उन आदमियों में एक लोहार भी था। लोहार ने कंजूस को फटकारते हुए कहा- इस साधारण झोपड़े के लिए तूँ इतना रूदन क्यों कर रहा है, इसमें तेरा कौन सा बड़ा नुकसान हो जायगा? सूम बोला- भाई तू झोपड़ा जलता देखता है और मैं अपने रत्नों को जलते देख रहा हूँ, फिर तू ही बता कि क्यों न रोऊँ। लोहार ने कहा- वह धन कहॉं और किस चीज़ में रखा हुआ है। तब सूमड़ा ऊँगली से बगल की एक कोठरी दिखलाते हुए बोला- उसी कोठरी में एक काठ की पुरानी संदूक रखी हुई है जिसमें सात लाख के जवाहारात बंद हैं। लोहार ने कहा- यदि मैं उन जवाहरातों को बाहर निकाल लाऊँगा तो अपने मन मानी तुझे दूँगा और बाकी मैं लूँगा। सर्वस जाता देख कंजूस ने उसकी बात मान ली। लुहार अग्नि से बचने की तरकीब जानता था इसलिये उस जलती हुई आग में साहस कर कूद पड़ा और कोठरी में पहुँचकर उस संदूक को बाहर निकाल लाया। इस प्रकार पिटारी को अपनी बगल मे रखकर अग्नि काण्ड देखने लगा।
थोड़ी देर बाद जब अग्नि का वेग घट गया और लोगों के हृदय में शांति आई तो पिटारी का मामला उपस्थित हुआ। जिस वक्त लोहार और कंजूस में ऐसी शर्तें तय पाई थी उस समय लोहार ने एक और चालाकी की थी। उस जगह के दो मनुष्यों को अपना गवाह बना लिया था। गवाहों के सामने ही वह पिटारी खोली गई। पिटारी खुलते ही जवाहरातों की चमक बाहर तक फैल गई। जैसे धन देखकर गँवारों की दशा होती है वही दशा लुहार की भी हुई। उस अमुल्य रत्नों की ढेरी को देखकर उसका मन फिर गया। वह पिटारी का सारा धन तो आप ले लिया और उस खाली पिटारी को बिचारे कंजूस के हवाले किया। कंजूस लुहार की ऐसी अनीति देखकर बहुत चकराया और गिड़गिड़ा कर उससे कहने लगा- भाई आधा धन मुझे दो और बाकी आधा आल ले लो, इसमें मेरी राजी है। लुहार डाटकर बोला- क्या पहले मेरे तेरे बीच ऐसी शर्तं पक्की नहीं हुई थी कि मैं तुझे अपनी मनमानी दूँगा! अब ची चपड़ क्यों करता है?
दोनों में बात विवाद होते-होते संपूर्ण रात्रि व्यतीत हो गई और सूर्योदय का समय आया। सूमड़ा आधा रत्नों को पाने के लिये बहुतेरा प्रयास किया परंतु लुहार उसकी एक भी सुनने को तैयार नहीं था सूमड़े ने लाचार होकर बादशाह के पास अर्जी गुजारी। मामला पेचीदा देखकर बादशाह ने बीरबल को बुलाया और उनका सारा हाल सुनाकर उसे न्याय करने की आज्ञा दी। बादशाह की आज्ञा सिरोधार्य कर बीरबल ने उन दोनों से अलग-अलग बयान लिये, और उन बयानों को पृथक-पृथक दो कागजों पर लिखकर उस पर उनके हस्ताक्षर कराये। फिर उन दोनों से बारी-बारी शाक्षी लेकर प्रमाणित कराया कि उनका कहना बिल्कुल सत्य और उन्हें मान्य है। तब बीरबल ने पहले पहल लुहार से पूछा- तुमको इसमें से क्या-क्या लेना मंजूर है? लोहार बोला- मेरी इच्छा जवाहरात लेने की है। बीरबल ने तुरंत निर्णय कर दिया- तू जवाहरात इस कंजूस को दे दे और स्वयं खाली पिटारी ले ले। यह निर्णय सुनकर लोहार ने शर्तनामें की तरु इशारा किया। बीरबल बोला- तूँ पहले ही अपनी शर्तों में लिख चुका है- मैं अपनी मन मानी दूँगा। तो तेरे मन में जवाहरात लेने का है अतएव तेरी तेरी जबान से ही निर्णय हो गया। अब जवाहरातों को इसे देकर आप खाली पिटारी लेकर चला जा। इस प्रकार लुहार के हाथ खाली पिटारी लगी और कंजूस सानंद जवाहरातों को लेकर घर लौटा।
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