संध्या का समय था अकबर अपने बाग में दरबारियों के साथ राजकीय विषयों पर विचार कर रहा था, इतने में तानसेन ने अपनी सारंगी मिलानी शुरू की। सबका ध्यान तानसेन के बाद्य की तरु आकृष्ट हो गया। दरबार का शेष कार्य स्थगित कर दिया गया। तानसेन ने एक मनहरन तान सारंगी पर छेड़ी। चारों तरफ से वाह-वाह की ध्वनि आने लगी। बादशाह आनंदमग्न तकिये के सहारे लेटा हुआ सुन रहा था। चारों तरफ आनंद छा रहा था। इसी समय शहर का कोतवाल दो आदमियों को लिये हुए आया। उन आदमियों के कपड़े खून से लथपथ हो रहे थे।
कोतवाल के अचानक आ पहुँचने से बड़ा रंग में भंग हो गया। बादशाह झल्ला गया और झिड़ककर कोतवाल से बोला- क्या तुमको इतनी भी तमीज न हुई कि यह समय दरबार का नहीं है, ऐसे मनबहलाव के समय बंदियों का लाना कहॉं तक उचित था। ये कैदी रातभर हवालात में रक्खे जा सकते थे। कल दरबार लगने पर इनके मामले पर विचार किया जा सकता था, फिर इतनी आतुरता दिखलाने का क्या कारण है ?
बादशाह की नाराजगी से कोतवाल सहम गया, परंतु बिना असलियत बतलाये भी काम नहीं चलते देख। कुछ सोच समझकर उसने कहा- गरीबपरवर! इसमें संदेह नहीं कि मैं इनको सुबह लेकर हाजिर हो सकता था परंतु इनका मामला बड़ा बेढंगा है जिस कारण मुझको विवश होकर इसी समय आना पड़ा।
उससे ऐसा सुनकर बादशाह कुछ शांत होकर बोला- अच्छी बात है! इनका अभियोंग सुनाओ।! कोतवाल ने कहा- आज जब मैं नगर में गस्त लगाते हुए व्यापारियों की मंडी में पहुँचा तो क्या देखता हॅू कि एक जगह बहुतेरे आदमियों की भीड़ लगी हुई है, जब मैं वहां गया तो इस अपरिचित मनुष्य को इस नगर व्यापारी से मार-पीट करते देखा। यह अपरिचित मनुष्य नगर व्यापारी को झिड़क रहा था कि – अरे दुष्ट! आज से पॉच-सात वर्ष पहले दू मेरा दास था और वहॉं से छिप कर भाग आया है। बड़े परिश्रम के बाद आज तुझे पकड़ लिया, अब मेरे रूपये अदा कर। इसको झिड़कते देख नगर व्यापारी बोला- नालायक! दास तो मेरा तू है तुझे मैं आज कितने ही वर्षों से ढूंढ रहा था, भाग्यवश इस समय हाथ लगा है। इन की आपस की ऐसी लड़ाई देखकर मैं इन्हें गिरफ्तार कर सरकार में लाया हूँ, अब आपकी जैसी मरजी हो इनका निपटारा कीजिये।
बादशा ने उनसे साक्षी मॉंगी, नगर सौदागर ने कहा- गरीबपरवर! आज से पॉंच वर्ष का अर्सा हुआ कि मैं अपना शहर ईरान छोड़कर दिल्ली आ बसा हूँ और यह हमारा नौकर इससे दो वर्ष पहले ही मुझको छोड़कर भाग गया था। आज जब मैं बाजार में खरीद फरोख्त कर रहा था तो यह भी अचानक वहीं पहुँचा और मेरा हाथ पकड़ कर बोला- तू मेरा गुलाम है, तू मेरा गुलाम है। मेरे व्यापारी होने का सारा शहर साक्षी है। जब पहला व्यापारी अपना ब्यान दे चुका तो दूसरा विदेशी व्यापारी बोला- पृथ्वीनाथ! यह झूठ बोलता है, क्योंकि ईरान का व्यापारी मैं हूँ, इस शहर में मैं बिल्कुल नया नया आया हूँ, इस कारण यहॉं का एक भी नागरिक मुझे नहीं पहचानता। यह जो इस नगर में शेरअली के नाम से विख्यात हो रहा है सो इसका फर्जी नाम है। यह ”नसीबा” नाम का मेरा गुलाम है। सात वर्ष का जमाना गुजरा जब मैं इसे दूकान पर छोड़ बाहर व्यापार के लिये गया था। मौका देखकर यह मेरी बहुत बड़ी रकम चुराकर भाग आया है। तभी से मैं इसकी खोज में दरदर ढूँढता फिरता हूँ, आज सात वर्षो़ के बाद यहॉं मिला है। इनका अभियोंग दरबार के सभी बड़े गौर से सुन रहे थे, मामला भी बड़ा पेचीदा जान पड़ता था, दोनों ही सौदागर कि लिवास में थे और दोनों की मुखाकृति भी अमीरों की सी थी।
जब यह मामला चल रहा था इसी बीच एक सरदार साहब भी आ पहुँचे और नगर व्यापारी शेरअली को कैदी की सूरत में देखकर बोले-शेरअली! यह तुम्हारी क्या हालत है, तुम कैदी की सूरत में क्यों दिखाई पड़ रहे हो! शेरअली को इस सरदार के आने से बड़ी तसल्ली हुई और बोला- सरदार साहब! आप भी जानते हैं कि मैं कितने वर्षों से इस नगर में व्यापार कर रहा हूँ और यहॉं का बच्चा-बच्चा मुझे पहचानता है। समय के फेर से वा दैव की अकृपा से आज मैं अपने ही दास द्वारा अभिशापित किया जा रहा हूँ।
सरदार बादशाह हो चिताकर बोला- गरीबपरवर! यह शेरअली आजकल का व्यापारी नहीं है बल्कि लड़ाई के समय में इसने कई बार सरकार को रूपये की मदद देकर राजभ्क्ति प्रकट की है। (शेरअली की तरफ इशारा करके) शेरअली! यह तुम्हारी ही उदारता का कारण था के मैंने गुजरात ऐसे सामर्थ्यशाली अधिपति पर विजय प्राप्त की थी तुम्हारी वह मदद हमारी नहीं बल्कि बादशाह की मदद थी। सरकार की तरफ से तुमको अभी तक उसका कोई पुरस्कार नहीं मिला है? सरदार की इस सारगर्भित शाक्षी से बादशाह खुश हो गया और बोला शेरअली को उस उपकार का बदला चुकाया जायगा।
बादशाह ने ईरान के सौदागर की तरफ इशारा करके कहा- क्यों भाई! तुमको भी किसी की साक्षी दिलानी है, यदि है तो उसे सामने लाओ, सरदार की साक्षी से तो नगर व्यापारी का शेरअली होना साबित होता है। ईरान का व्यापारी बोला- गरीबपरवर! मैं इस स्थान में पहले पहल आया हूँ, यहॉं की भाषा तक नहीं समझता और न यहॉं पर मेरा कोई परिचित ही है। अभी मेरा सामान भी बाहर ही पड़ा हुआ है, उसको यहॉं लाने में अभी कई दिन व्यतीत हो जायँगे, फिर मैं किसकी साक्षी दूँ। हॉं इतना जरूर है कि मैं दूर देशों से सुनता आ रहा हूँ कि आपके दरबार में बड़ा सच्चा न्याय होता है, इसलिये कृपया हमारा उचित न्याय करा दीजिये।
दोनों फरीकैनों की बातें सुनकर एक सभासद ने बादशाह से अर्ज किया- पृथ्वीनाथ! यह मामला बड़ा ही बेढ़ंगा दीखा पड़ता है। इसका फैसला कवि गंग से कराया जाय। वे ऐसे मामलातों को महज खिलवाड़ मात्र समझा करते हैं। विचारा कवि गंग बड़ा घबराया और झट बोल उठा- हजूर! बीरबल के रहते इसका न्याय करने की दूसरे की आवश्यकता नहीं है अतएव इसका न्याय बीरबल से ही कराया जाय। वे इससे कभी इनकार नहीं कर सकते। बादशाह तो पहले ही से समझ रहा था, उसने बीरबल को आज्ञा दी- इस मामले की अच्छी तरह जॉंचकर न्याय करो। बीरबल ने भी सहर्ष स्वीकार किया।
बीरबल की कार्यवाही शुरू हुई। वह दोनों व्यापारियों को पास बुलाकर उनसे बहुत प्रकार की पूछ-ताछ की परंतु फिर भी कुछ मतलब की बात हासिल न हुई। तक उसने एक नई सूझ निकाली। बीरबल ने उन दोनों सौदागरों को एक जगह खड़ा कराकर एक जल्लाद को नंगी तलवार लिये हुए बुलवाया। जब वह आकर हाजिर हुआ तो बीरबल उससे बोला- क्या देखता है, गुलाम को अभी मार डाल। बीरबल के मुख से इतना शब्द निकलते ही जल्लाद तलवार लेकर झपटा। उसका झपटना था कि नगर व्यापारी यानी नकली शेरअली अलग हट गया। बीरबल उसकी ऐसी हरकत देखकर तुरंत ताड़ गया कि असल में यही गुलाम है। उसने उसकी कलाई पकड़ ली, नकली शेरअली ने भी अपना गुलाम होना स्वीकार कर लिया और वह तुरंत कैद कर लिया गया। अनंतर दरबारियों के पूछने पर उसने कहा- असल में मैं ही अपने इस ईरानी मालिक असली शेरअली का गुलाम था। मेरी आदत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी, मैं हमेशा इसे हटाने की ताक में था जब मेरा मालिक मुझे दूकान पर अकेला छोड़कर बाहर चला गया तो मेरी नीयत बिगड़ी और उसका बहुत सा माल लेकर वहॉं से भाग निकला। घूमते फिरते यहॉं पहुँचा और उस चोरी के रूपयों से व्यापार करने लगा, चूँकि इस काम को मैंने अपने मालिक के यहॉं ही सीखा लिया था इस कारण व्यापार चलाने में मुझे कोई दिक्कत न पड़ी और मेरा काम धड़ल्ले से चलने लगा। अब मैं असली शेरअली के नाम से विख्यात हो गया हूँ। इतने दिनों के परिश्रम से जो मैंने भारत वर्ष में अपना नाम प्रख्यात किया था से आज दैव के प्रकोप से मिट्टी में मिल गया। अब मुझसे गुलामी करते नहीं बनेगी अतएव कृपाकर मुझे प्राण दण्ड की आज्ञा दीजिये।
बादशाह ने शेरअली से पूछा- शेरअली, अब तुम इस आदमी को क्या करना चाहते हो। शेरअली बोला- गरीबपरवर! अब मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं है मेरी बात रह गई अब आपके जी में जो आवे सो कीजिये। शेरअली के ऐसे संतोषप्रद वाक्यों से बादशाह को बड़ी प्रसन्नता हुई परंतु उसने अपना राज किसी पर जाकिर न किया।
बिचारा अपराधी नसीबा जीवन की आश त्यागकर एक तरफ खड़ा था। बादशाह उसकी तरफ लक्ष्य कर बोला- नसीबा! तुम्हारा अपराध प्राण-दण्ड पाने योग्य है परंतु तूने मेरे साथ उपकार किया है और मैंने अभी तक तुझे उसका कुछ बदला नहीं चुकाया है अतएव तुझे जीवन दान देता हूँ और पुरस्कार में तुझे दरबार का एक काम सौंपता हूँ, अब तुम उसी काम के सहारे से अपना जीवन निर्वाह करो। नसीबा खुशी के मारे फूला न समाया और बड़ी प्रसनता से उस पद को स्वीकार किया। बादशाह ने मन में विचार किया कि इस न्याय में बीरबल ने कमाल किया है इसकारण उसको भी उचित पुरस्कार देना परमोचित है।
बादशाह ने तीन पोशक मँगवाई, उसमें पहली कुछ आभूषणों के साथ असली शेरअली को और दूसरी बीरबल को तथा तीसरी नसीबा नामी गुलाम को देकर बिदा किया। नसीबा शेरअली के चरणों पर गिरकर अपने अपराध की माफी मॉंगी और उसको आदरपूर्वक अपने मकान पर ले गया। उसने अपना सारा धन शेरअली के हवाले कर दिया। शेरअली बहुत बड़ा व्यापारी था उसका सारा कारोबार ईमान पर चलता था। उसने विचार किया- व्यापार से मेरे धन के अतिरिक्त जो कुछ नसीबा ने अधिक उपार्जन किया है वस उसके परिश्रम का है। उसने अपना असली धन लेकर शेष बचा धन नसीबा के हवाले किया और खुशी-खुशी अपने ईरान शहर को लौट गया।
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