1) सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार ।
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीँ विकार ।।
अर्थात :- सत्संग सूप के ही तुल्ये है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है। तुम भी गुरु ज्ञान लो, बुराइयों छुओ तक नहीं।
2) मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ ।
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ।।
अर्थात :- संसार, शरीर में जो मैं, मेरापन की अहंता, ममता हो रही है, ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो। अपने अहंकार, घर को जला डालता है।
3) भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय।
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ।।
अर्थात :- जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे सन्त भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त-अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी के बाज़ार मैं बिकने जा रहे हैं।
4) कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास ।
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश ।।
अर्थात :- ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो। अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा।
5) मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत ।
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ।।
अर्थात :- भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ। मरने के पश्यात भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है।
6) अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार ।
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार ।।
अर्थात :- आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जाये। तुम्हारे अंधकाररुपी घर में को काम, क्रोधादि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञानाग्नि से जला डालो।
7) मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वाश ।
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ।।
अर्थात :- मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब दोखा नहीं देगा। असावधान होने पर वह पुनः चंचल हों सकता है इसलिए विवेकी सन्त मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में श्वास चलता है।
8) जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय ।
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ।।
अर्थात :- जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता। अतएव शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रुपी मैदान में विराजना चहिये।
9) शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल ।
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ।।
अर्थात :- गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है। उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।
10) जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय ।
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ।।
अर्थात :- जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो। मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। शरीर रहते रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना, विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं।
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