एक दिन रात्रि समय बीरबल किसी कार्यवश नगर से बाहर दूसरे ग्राम को जा रहा था, थोड़ी दूर जाने के बाद उसे एक झोपड़ा दिखाई पड़ा। उस झोपड़े से किसी के रोने की आवाज आ रही थी। अर्धरात्रि के समय फूट-फूट कर रोने का शब्द सुन बीरबल से न रहा गया। वह झोपड़े के पास जा पहुँचा। दरवाजा बंद था, बीरबल ने आवाज देकर कई बार पुकारा- भाई अभी इस झोपड़े में कौन आदमी रो रहा था ? उस झोपड़े से एक बुड्ढा मनुष्य बाहर निकला और लड़खड़ाते हुए बोला- आपको रोने वाले से क्या गरज पड़ी है, मैं ही रो रहा था? बीरबल उसे अंधेरे में देखकर भली-भांति पहचान न सका। वह एक बूढ़ा पुरूष जान पड़ता था। उसके शरीर के चमड़े झूल गये थे। कमर झुककर धनुधाकार हो रही थी।
बीरबल ने आग्रह पूर्वक उससे ऐसी रात्रि में रोने का कारण पूछा। तब बुड्ढा बोला, भला आपसे रोने का कारण बतलाने से मुझे क्या लाभ होगा, नाहक एक अपरिचित आदमी के सामने दुखड़ा रोकर अपनी अमर्यादा क्यों कराऊँ? बीरबल ने उसकी सहायता करने का बचन दिया, तब वह बुड्ढ़ा बोला- अच्छा यदि आप सुनना ही चाहते हैं तो सुने। इस समय मेरी अवस्था सत्तर के लगभग पहुँच चुकी है, ईश्वर ने एक लाल दिया था सो वो भी चल बसा। घर में मेरी रखवाली वा भरण पोषण करने वाला कोई भी नहीं है, बिचारा लड़का कमा कर लाता था उससे हम पिता पुत्रों का भरण-पोषण भलीभॉंति हो जाया करता था। मेरे से काम नहीं हो सकता, बड़ी जोर लगाकर भी तीन चार पैसे से अधिक की मजदूरी नहीं कर पाता। महीने में ऐसा एक भी सौभाग्य का दिन नहीं होता, जिस दिन मैं भर पेट भोजन कर चैन की नींद सोऊँ। लड़के की सोच अलग मारे डालती है। आज तीन दिनों से बराबर फॉंका कर रहा हूँ। उदर की ज्वाला अबर्दास्त होने से रो रहा था।
बीरबल ने सोचा- यह अंधेरी रात है, चारों तरु सन्नाटा ही सन्नाटा नजर आ रहा है। ऐसी हालत में तत्काल इस आदमी की भला मैं क्या सहायता कर सकता हूँ, बेहतर होगा कि कल प्रात:काल इसे अपने मकान पर बुलाऊँ। उसने प्रकट रूप में कहा- चाचाजी! यह रात्रि का समय है, थोड़ी देर और अपनी झोपड़ी में जाकर आराम कीजिए। तड़के उठकर दीवान खाने में आना, मेरा नाम बीरबल है। इतना कहकर बीरबल चला गया और बुढ्डा भी झोपड़ी में पड़ा हुआ सबेरा होने की प्रतीक्षा करने लगा, सारी रात उसको निद्रा न आई। सूर्योदय होते ही ठेगता हुआ दीवान के घर पहुँचा। बीरबन ने बुड्ढे की बड़ी आवभगत की और अच्छा अच्छा पदार्थ भोजन कराया। जब वह खा पीकर संतुष्ट हुआ तो बीरबल ने कहा- चाचा जी! इस समय मैं आपको केवल पंद्रह दिन का खर्च देकर बिदा करता हूँ। इसके बीच मिश्री की एक डेली लेकर उसे हीरे की शक्ल का बनाकर मेरे पास लाना, तब मैं आपको आगे की तरकीब बतलाऊँगा। बुड्ढा बीरबल को आशीर्वाद देता हुआ घर लौट गया। आठ दस दिनों के अंतर्गत वह एक मिश्री के टुकड़े को खूब घिस छोलकर हीरे के आकार का बनाकर बीरबल के पास ले आया। बीरबल ने उस नकली हीरे को हाथ में लेकर देखा, निसंदेह वह बनावटी हीरा असली हीरे को मात कर रहा था। बीरबल ने बूढ़े से कहा- चाचा जी इसको लेकर कल फिर आएयेगा, आपको बादशाह के पास चलना होगा। मैं इसे बादशाह के हाथ बेचकर आपको एक अच्छी रकम दिलाऊँगा।
दूसरे दिन बीरबल बुढ्डे चाचा को साथ लेकर रोज से पहले ही राज महल में जा पहुँचा। उसे देखकर बादशाह को कुछ कारण विशेष जान पड़ा इसलिये उससे पूछा- क्यों बीरबल आज इतनी जल्दी क्यों आना हुआ? बीरबल ने विनम्रता से उत्तर दिया- गरीबपरवर! यह कारीगर एक उत्तम हीरा लेकर मेरे साथ आया है, यह उस हीरे को बेचना चाहता है। मुझे विश्वास है कि यह चीज आपके पसंद की होगी।
इतना कहकर उसने हीरे को बादशाह के हाथ में दे दिया। बादशाह ने हीरे को भली-भॉंति देखकर कहा- बीरबल! हीरा तो लाजवाब है, परंतु बूढ़े जौहरी से कहो कि इसे लेकर दो घंटे पश्चात हाजिर होवे। बुढ्डा वहॉं से हट गया। जब बादशाह ने बीरबल को उसकी भलीभॉंति जांच कराने की आज्ञा दी। बीरबल इधर उधर घूम फिरकर आ गया और बोला- पृथ्वीनाथ! इसके अच्छा होने में कोई संदेह नहीं है। हीरे को आप अपने पास रखें। बीरबल के इस उत्तर से बादशाह को संतोष हुआ और फिर बोला- हीरे को खरीदने से पहले और जॉंच करालो। बीरबल बोला- पृथ्वीनाथ! इस समय हीरे को अपने मुख में रख लीजिये, फिश्र जॉंच होती रहेगी। बादशाह ने हीरे को मुख में छिपा लिया। बादशाह की आज्ञानुसार बूढ़े चाचा के आने का समय हुआ और वे ठेगते-ठेगते दरबार में पुन: हाजिर हुए। उसे देख बीरबल ने बादशाह से कहा- गरीबपरवर! देखिये वह हीरे वाला वृद्ध भी आन पहुँचा, उसे अब क्या कहकर उत्तर देना होगा।
बादशाह ने बीरबल की तरफ देखकर पूछा- क्यों बीरबल! वह हीरा तो मैंने तुम्ही को दिया था न, बीरबल ने साफ इंकार कर दिया और बोला- पृथ्वीनाथ! उसे तो आपने अपने पास ही रखलिया था।
बादशाह को भी बीरबल की बात सच्ची जान पड़ी, खबर नहीं कि आखिर उसे रखा किस जगह! उसने हीरे का बहुतेरा खोज किया, परंतु जब कही हो तब तो मिले वह तो मुख में गलकर पानी हो गया था। लाचार होकर बादशाह बोला- अच्छा बीरबल! बुड्ढे व्यापारी से उसका मूल्य निश्चित कर लो, परंतु उससे कोई झकझक न करना। हुक्म मिलते ही बीरबल ने बूढ़े चाचा से हीरे का मूल्य पूछा। वह बोला- दीवान जी! हीरे का असली मूल्य दो हजार मुहरें हैं और दो सौ मुहरें मैं नफे में लूँगा। बीरबल ने कहा- नहीं तुम्हें नफे में पचास मुहरें ही दी जायँगी। बूढा दुखित मन से बाला- सरकार! यदि आपको मुनाफे की दो सौ मोहरें देनी स्वीकार हो तब तो लेवें, नहीं तो कृपाकर मेरा माल मेरे हवाले करें।
बीरबल मूल्य में कमी कराने के लिये उससे बारबार बनावटी माथापच्ची करता रहा, अंत में झुझलाकर बोला- बुढ्डे! इतनी टिरटिर क्यों करता है, अच्छा पचास मोहरें और ले लेना। परंतु बूढ़ें चाचा तो एक पक्के गुरू के चेला थे भला वे कब मानने लगे। मुँह बनाकर बोले- दीवान जी! इस प्रकार मुझ गरीब को क्यों दबाते हैं, मैं दो सौ मुँहरों से एक कौड़ी भी कम न लूँगा। बादशाह इन दोनों की बड़ी देर की झक-झक सुन क्रोधित होकर पूछा- क्यों बीरबल! व्यापारी क्या कहता है? बीरबल ने उत्तर दिया- पृथ्वीनाथ! वह हीरे की लागत दो हजार मुहरें बतलाजा है और मुनाफे की दो सौ मुँहरें अलग से मॉंगता है। मैं इसके नफे में कमी करवाता हूँ और केवल एक सौ मुँहरें ही देना चाहता हूँ। बादशाह ने बीरबल को इशारे से मना किया और उदारतापूर्वक बूढ़े जौहरी को हीरे का मूल्य और दो सौ मुनाफे की मुहरें खजॉंजी से दिलवा कर बिदा किया।
वृद्ध की प्रसन्नता बॉंसो से उछल पड़ी और मनोमन बीरबल को कोटिश: धन्यवाद देता हुआ आपने घर चला गया। शाम को दरबार से अवकाश पाकर जब बीरबल घर पहुँचा तो जौहरी बूढ़े चाचा को प्रस्तुत पाया। बूढ़ा बीरबल को देखकर प्रसन्नता से रोमांचित हो गया और बोला- आको और आकी बुद्धि को धन्य है, दीवान साहब! आप जो मुझ सरीखे दीनों पर उपकार कर रहे हैं उसका फल ईश्वर आपको हाथों हाथ देगा। मुझे विश्वास हो गया है कि इस पृथ्वी मंडल पर आप ऐसा प्रजापालक दूसरा दीवान नहीं है। उसकी ऐसी अनेकों प्रशंसा की बातें सुनकर उसके संतोपार्थ बीरबल ने कहा- चाचाजी! इसमें मेरा क्या उपकार है। यह सब आपको आपकी बुद्धिमानी का प्रतिफल मिला है, बुढ्डा इस पर आवाक हो गया और कोटि-कोटि आशीर्वाद देता हुआ आपने घर चला गया।
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