नकली बीरबल
जब से बादशाह को बीरबल के मृत्यु का समाचार मिला था तबसे उसके विछोह के कारण बड़ा दलगीर रहता और बराबर उसका शोक मनाया करता था। बादशाह की उदासी मिटाने के लिये लोगों ने बड़ी-बड़ी तरकीबें निकाली, पर दिल की लगन बुरी होती है। जब उपायों से कार्य सिद्धि न हुई तो करबारियों ने अष्टकौशल कर एक नई युक्ति सोच निकाली और कितने नागरिकों से कानों कान कहलाया कि अभी बीरबल जीवित है। जब इस हौवा से भी बादशाह को संतोष नहीं हुआ तो दूर-दूर के शहरों तथा दिहातों से बीरबल के जीवित रहने का समाचार आले लगा। लोग कहते थे कि वह लड़ाई से बचकर एक दूसरे शहर में छिपकर बैठा है।
एक बार ऐसी घटना घटी कि किसी मनुष्य ने अपने को बीरबल कहकर घोषित किया, परंतु उसका बादशाह से साक्षात न हो सका, वह आते-आते बीच मार्ग में स्वर्गवासी हो गया। बादशाह का मनतव्य पूरा नहीं हुआ। जीवनपर्यन्त उसे अपने प्रिय मंत्री बीरबल से फिर साक्षात न हो सका।
एक गॉंव सीड़ी था उसमें इस घटना के दो तीन वर्ष बाद एक द्विजाति कुलोन्द्रव ने अपने को बीरबल कहकर घोषित किया और लोगों में इस बात का खूब प्रचार किया कि मैं ही बीरबल हूँ। जब पठाानों का युद्ध छिड़ा था तो मैं लड़ाई में आहत होकर एक महात्मा की कृपा से जीता-जागता निकल आया। महात्मा ने मेरी बड़ी श्रुश्रुषा की। जब मैं एक दम चंगा हो गया तो उस साधु से आज्ञा लेकर इस गॉंव में आ बसा। उस आदमी की सूरत भी बीरबल से बहुत कुछ मिलती जुलती थी। वह बीरबल के जीवनकाल की सारी बातें भलीभॉंति स्मरण कर लिया था जिस कारण बीरबल संबंधी प्रश्न उपस्थित होने पर वह उसका उचित उत्तर देता था।
कितने ही लोगों को धोखा हो गया। वे उसे असली बीरबल समझकर बादशाह के पास पहुँचाने आये परंतु वह रास्ते में ही स्वर्गवासी हो गया। बादशाह उसकी प्रतीक्षा करता रहा। ऐसी ही ऐसी और भी कितनी अफवाहें बादशाह के कान तक पहुँची, परंतु तब उनकी जॉंच कराई गई तो सारी बातें झूठी निकली। उसके गुप्तचर सच्ची खबर नहीं देते थे जिससे कालान्तर में उनका भेद खुल गया। बादशाह दूतों के ऐसे विश्वासघात करने पर आग बबूला हो गया और उनको कठिन दण्ड दिया।
खुदा को अक्ल से पहचान करो।
बादशाहों की सभा में चित्रकारों के रहने की पुरानी प्रणाली है। अकबर बादशाह के दरबार में भी नियम-परम्परा के अनुसार कई चित्रकार विद्यमान थे। उनमें एक सर्वप्रधान था। वह प्रति चित्र के बनवाई में पॉंच हजार पुरस्कार लेता था। एक दिन उस चित्रकार के पास एक बड़ा आदमी आया और बोला- महाशय जी! मुझे भी अपनी चित्र बनवानी है, यदि आप उसे सर्वोगपूर्ण बना सकेंगे तो मैं आप को पंद्रह हजार रूपया ईनाम दूँगा। चित्रकार सहमत हो गया और दूसरे ही दिन से चित्र बनाना शुरू किया। इस काम के संपादन में उसे कई मास का अरसा लगा। जब चित्र उसकी इच्छानुकूल तैयार हो गया तो उसे लेकर रईस के पास गया। वह चित्र को लेकर अपने चेहरे से भलीभॉंति मिलान किया। उसमें एक स्थान पर ऐब रह गया था। साहूकार ने चित्रकार को उसे दिखलाया। वह विवश होकर दूसरा चित्र बना लाने का बचन देकर खाली हाथ लौट गया और फिर से चित्र बनाना प्रारंभ किया। इस बार पहले से भी अधिक तत्परता से चित्र तैयार किया। उसका विश्वास था कि इस मर्तवा साहूकार को चित्र पसंद आजायगा। दूसरे दिन फिर चित्र को लेकर शाहूकार के पास पहुँचा और पुरूस्कार का दावा किया।
भालेमानस ने चित्रका फिर से मिलान किया, फिर भी उसके गोड़ में ऐब रह गया था। इसी प्रकार सेठ और कई बार चित्रकार को मूर्ख बनाकर लौटा चुका था। मनूष्य अपनी कामयाबी के लिये बार-बार परिश्रम करता है, जब करते-करते थक जाता है तो उसकी हिम्मत छूट जाती है और फिर उसके किये वह काम नहीं होता। इसी प्रकार वह चित्रकार भी अपनी नाकामयाबी से हताश हो गया और अपनी अपकीर्ति जन समुदाय में बढ़ने के भय से गंगा में डूब मरने का संकल्प किया। जिस समय गंगा तट पर पहुँचकर वह आत्मविसर्जन का उपाय सोच रहा था उसी समय हरीच्छा से बीरबल नामी एक ब्राहृाण का दीन लड़का भी वहॉं उपस्थित था। लड़का चिकार के मनोगत भावों को ताड़ गया और उसे ढाढ़स देने के विचार से पूछा- महाशय जी! आप इतना चिन्ताग्रस्त क्यों दिखाई पड़ते हैं, जान पड़ता है चिंता रूपी सॉंपिन ने आपको डस लिया है? कृपाकर मुझसे अपने दुख का कारण साफ-साफ बतलाइये, मैं यथासक्य उसके निवारण का प्रयत्न करूंगा। बालक के ऐसे विनम्र वचनों से चित्रकार की जीवन आशा पुन: जागृत हुई और अपना दु:खद समाचार कहकर सुनाया। लड़का बोला- आप इस थोड़ी सी बात के लिये इतना अधीर क्यों हो रहे हैं? धैर्य धारण कीजिये, मैं उसका चित्र बना दूँगा और फिर उसे ऐब दिखलाने का अवसर न मिलेगा, केवल थोड़ा और परिश्रम कर मुझसे उसका साक्षात्कार करा दें।
चित्रकार लड़के को साथ लेकर उस रईस के पास गया, बीरबल उस रईस को फॉसने के लिये रास्ते में ही एक तरकीब सोच चुका था वह बाजार से एक शीशा खरीदकर अपने साथ लेता गया, चित्रकार को देखकर उक्त रईस ने पूछा- क्या दूसरा चित्र तैयार हो गया? बीरबल ने उत्तर दिया- हॉं तैयार करके लाया है। चित्रकार आगे बढ़कर रईस को अपना दर्पण दिखलाया। दर्पण में रईस अपना स्वरूप ठीक-ठीक दीख पड़ा, फिर उसे आना-कानी करने की कोई दूसरी तरकीब नहीं सूझी, लाचार होकर कौल के अनुसार पंद्रह हजार रूपये देने पड़े। चित्रकार बीरबल की ऐसी युक्ति से बड़ा संतुष्ट हुआ।
वह रूपया लेकर घर लौट गया, परंतु बीरबल रईस का चरण पकड़ कर बोला- भगवान्! मैं आपको अब नहीं छोड़ँगा क्योंकि आप मुझे मनुष्य के रूप में देवता जान पड़ते है। बीरबल की हठधर्मी से विवश होकर देवता ने प्रत्यक्ष होकर दर्शन दिया और उसकी बुद्धि बढ़ने का आशीर्वाद दिया। फिर बीरबल को संतुष्ट कर देवता अंर्तध्यान हो गये। चित्र में बारंबार दोष निकालते देखकर बीरबल ने देवता को पहचान लिया था। उसी समय से लोगों की ऑखे खुल गई और ऐसी जनश्रुति चल पड़ी- खुदा को अक्ल से पहचान करो।
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