एक दिन शीतकाल में कुछ लोगों के साथ बादशाह हवा सेवन के लिए नगर से बाहर निकला। वह घूमते-घूमते एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचा जहॉं एक पुराना जलकुण्ड जल से लबालब भरा हुआ था। उस कुण्ड पर आदमियों वा जानवरों का समागम भी बहुत कम था। बादशाह ने अपना हाथ कुण्ड में डुबोया, उसका जी सन्न हो गया, उस मैदान के तलाब का जल हवा और ओसके प्रभाव से अत्यधिक शीतल हो रहा था। बादशाह बड़ा रसिक और बहादुरों की कदर करने वाला था। अतएव अपने साथियों के परीक्षार्थ बोला-
आप लोगों में कोई ऐसा भी वीर है जो इस जलकुण्ड में घँसकर एक पहर रात्रि तक खड़ा रहे।
किसी को बादशाह के प्रश्न का उत्तर देने का साहस न हुआ, आखिरकार फिर बादशाह ने एक दूसरी घोषणा की।
उसने कहा- जो कोई आज इस तालाब के जल में गले तक डूबकर रात्रि भर खड़ा रहेगा, उसको पचास हजार रूपये बतौर परितोषिक के दिये जायँगे।
फिर भी कोई मनुष्य उस जान लेवा देवा कर्तव्य के लिए उद्यत न हुआ। तब उसी गिरोह का एक बरहमन जो वस्त्रभाव के कारण अर्धनग्न हो रहा था, बढ़कर सबसे आगे आया। उसने अपने मन में सोचा- रोज-रोज की यातना से एक दिन में ही कष्ट सहकर प्राण त्याग देना उत्तम है, मैं किसी दिन भर पेट अन्न खाकर नींद भर नहीं सोता, रात दिन गरीबी की आग में जला करता हूँ, तो क्यों न इसी बहाने प्राण त्याग दूँ! यदि ईश्वर सहायक हुआ तब तो कहना ही क्या है। इस पुरस्कार से आजन्म सुखपूर्वक निर्वाह करूंगा। फिर बादशाह से अपना दोनों हाथ जोड़कर बोला- पृथिवीनाथ! मुझे आपकी शर्ते मंजूर है। बादशाह ने कहा- अच्छी बात है, यदि तू अपने कौल का सच्चा निकलेगा तो मैं तुझे पचास हजार रूपयों के अतिरिक्त बहुत सा वस्त्राभूषण भी इनाम में दूँगा।
तालाब के चारों तरु बादशाह ने संतरियों का पहरा बैठा दिया। फिर वह दीन ब्राहृाण नंग-धड़ंग होकर उस जल में बैइा और राम-राम करके सारी राज बिता दी। जब सबेरा हुआ तो रूपये लेने की लालच से अपनी गीली धोती निचोड़ता हुआ गिरता पड़ता दरबार में हाजिर हुआ। साथ में वे सब पहरे के संतरी भी थे। बादशाह ने संतरियों से बरहमन के सच्चे झूठे के निस्बत शाक्षी ली। सभीं ने एक स्वर से उसका सच्चा होना स्वीकार किया। बादशाह ने बरहमन को रूपये देने की आज्ञा दी। मसल मशहूर है- तेली का तेल चले और मशालची को पीड़ा हो। परिश्रम किसने की और पुरस्कार कौन देगा, इसका ख्याल न कर कुछ कुटिल दरबारी जल गये और वे इस उपाय में लगे कि येन केन उपायेन इसको यह द्रव्य न मिले।
उनमें से एक सर्वश्रेष्ठ कुटिल चुपके से उठकर एक संतरी से जा मिला और उसे उल्टी सीधी सिखाकर बादशाह के संमुख खड़ा किया। वह बोला- पृथिवीनाथ! यह बरहमन तो जल में कंडा हो गया होता, परंतु इसने एक चालाकी की थी जिससे जीता बच गया। सामने पहाड़ पर आग चल रही थी यह उसी को देखता हुआ उसकी गरमी के सहारे से खड़ा रह गया।
बादशाह बोला- क्यों! क्या यह संतरी सच कह रहा है? इस पर एक दूसरे संतरी ने भी हामी भर दी। तब बादशाह उस बरहमन से बोला- देखो तुम अपने कौल पर नहीं रहे बल्कि अग्नि को देखकर रात बिताया है अतएव तुमको पुरस्कार के रूपये नहीं दिये जायँगे।
उस उपस्थित मंडली में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं निकला जो उस दीन की सहायता करता। आखिरकार रोता-बिलखता हुआ बीरबल के घर पहुँचा। उसका आद्योपान्त समाचार सुनकर बीरबल ने उसे ढाढ़स दिया और उसे चुपचाप घर जाकर बैठने की सहमति देकर बिदा किया। दूसरे दिन जब बीरबल को दरबार जाने का समय हुआ तो एक नई तरकीब सोच कर निकाली। मार्ग में एक नदी का तट मिला वहीं पर रूककर झटपट पड़ोस के गॉंव से एक बड़ा लम्बा बॉंस मँगवाया और उसके सिरेपर एक काली हडि़या बॉंधकर तने को जमीन पर गाड़ दिया और उससे सटकर आग जलाना शुरू किया।
जब दरबार के समय बादशाह! अपनी सभा में आया तो बीरबल अनुपस्थित था वह उसके आने की प्रतीक्षा करने लगा जब इस प्रकार घंटो हो गया और बीरबल नहीं आया तो उसे चिन्ता हुई और तुरंत बीरबल को बुलाने के लिये एक दूत को भेजा। बीरबल के घर पहुँचकर उस सिपाही को विदिल हुआ कि बीरबल नदी तट पर किसी कार्य वश गया है। वह सीधे नदी तट की तरु मुड़ा और वहॉं पहुँचकर बीरबल से बादशाह की आज्ञा सुनाकर बोला- आपको बादशाह शीघ्र बुला रहे हैं।
बीरबल ने कहा- भाई थोड़ी सबर कर फिर चलता हूँ। सिपाही बोला- यह आप क्या कर रहे हैं? बीरबल ने उत्तर दिया- क्या तू इतना भी नहीं समझता, मैं खिचड़ी पका रहा हूँ। सिपाही बीरबल के चरित्रों से परिचित था अतएव उसने उसमें कुछ रहस्य की बात समझकर हँसता हुआ चला गया। दरबार में पहुँचकर उसने बीरबल का सारा वृतान्त कह सुनाया। बादशाह बीरबल से मिलने के लिये और भी उत्सुक हुआ। कुछ समय और प्रतीक्षा करने पर जब वह न आया तब उसे बुलाने के लिये एक दूसरे आदमी को भेजा। वह भी वही पहले सा सूखा उत्तर लेकर लौटा। बादशाह मिनट-मिनट पर उसे बुलाने को आदमी भेजने लगा, परंतु बीरबल सबको यही एक उत्तर देकर लौटाता- भाई खिचड़ी पका रहा हूँ, थोड़ी देर में आता हूँ।
बादशाह को बीरबल की बाट निहारते-निहारते कई घंटे हो गये और दरबार का सारा काम इसी आवा-जाही के कारण बंद रहा। बीरबल की ऐसी धृष्टता बादशाह को असहृा हो गई और वह क्रोध में परिणत होकर बोला- वाह मुझे प्रतीक्षा करते-करते कई घंटों का समय व्यतीत हो गया और अभी तक उसकी खिचड़ी न पकी। मैं स्वयं चलकर उसकी खिचड़ी देखता हूँ।
बादशाह कुछ लोगों को साथ लेकर स्वयं उस स्थान पर गया, जहॉं महाशय बीरबल की खिचड़ी पक रही थी। अजीब दृश्य था ऊपर बॉंस के सिरे में बँधी हुई एक काली हॉंडिया टंगी थी और वह नीचे घास सुलगा कर खिचड़ी पका रहा था। बादशाह बोला- बीरबल यह तूँ क्या कर रहा है?
बीरबल ने उत्तर दिया- पृथिवीनाथ खिचड़ी पका रहा हूँ।
बादशाह- मैं देखता हूँ कि आज तुम्हारा दिमाग घूमा हुआ है?
भला- आकाश में हडि़यॉं टॉंगकर कहीं जमीन पर घास सुलगाने से खिंचड़ी पक सकती है?
बीरबल- गरीबपरवर! जिस प्रकार एक कोस की दूरी से अग्नि की उष्णता देखकर ब्राहृाण जल में रात्रि समय जीवित रह सकता है, उसी प्रकार मेरी खिचड़ी भी थोड़ी देर में परिपक्क हो जायेगी।
बादशाह- बीरबल की दस दृष्टान्त भरी खिचड़ी से प्रसन्न हो गया और बोला- बीरबल! अब मैं भलीभॉंति समझ गया, तुम्हारा कहना सत्य है अतएव दरबार में चलो। बरहमन को शर्त के अनुसार इनाम दिया जायेगा। बीरबल तो केवल, उतने ही के लिये नया नाटक तैयार किये हुए था। जब उसकी मंशा पूरी हो गई तो उठकर बादशाह के साथ दरबार को गया। बादशाह ने सिपाही भेजकर उस बरहमन को बुलावाया और उसको अपनी घोषणा कु अनुसार द्रव्य और वस्त्राभूषण देकर बिदा किया। वह बीरबल को कोटि-कोटि धन्यवाद देता हुआ अपने घर चला गया।
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