पहले जन्‍म की वार्ता! – Akbar Birbal Ki Kahani in Hindi

बैजर नामी ग्राम में दो आदमी बड़े मित्र भाव से बसते थे। उनमें एक का नाम पंडित शुशर्म्‍मा था जो अति विद्वान, सदाचारी तथा गंभीर प्रकृति का था। दूसरे मित्र का नाम सुदामा था। यह जाति का नाई था परंतु विचार में बड़ा ही न्‍याई था। इनका आपस में ऐसा संगठन था कि बिना एक से पूछे दूसरा कोई नया कार्कारंभ नहीं करता था। एक दिन अकस्‍मात सुशर्मा के जी में यह बात आई- हमें कोई ऐसा कर्म करना चाहिये जिससे भविष्‍य में राज्‍य ऐश्‍वर्य का सुख मिले। इस विचार से प्रेरित होकर उसने सुदामा नामी अपने मित्र से इस की चर्चा की। सुदामा नाई ने कहा- मित्रवर! मेरा धर्म भी यही कहता है कि आपको तपश्‍चार्या करने अनुमति दूँ और तपश्‍चर्या के समय आपका सहयोग कर मैं भी अपना अगला जन्‍म सँवारू। सुशर्मा अपने मित्र को अपनी सम्‍मति से सहमत देखकर बड़ा प्रसन्‍न हुआ और मित्र सुदामा नाई के सहित प्रयाग को चला गया। वहॉं पहुँचकर त्रिवेणी के समीप ही एक छोटी सी पर्णकुटीर बनावाकर तपश्‍चर्या में निमग्‍न हुआ।

सुशर्मा ने तन्‍मय होकर कई वर्षो तक उस पणंकुटीर में तप किया परंतु फिर भी देवताओं की प्रसन्‍नता न हुई तब ऐसी तपश्‍या से उसका मन ऊब गया और उस प्रणाली को बदल कर संन्‍यास धारण किया। काशाय वस्‍त्र पहन कर पुन: तप करने में दत्‍तचित्‍त हुआ। सुदामा नाई भी क्षत्रछाया की तरह उसकी सेवा करता हुआ अपना धर्म पालन करने लगा। उसका अनुमान था कि सन्‍यासी की सेवा से मनोभीष्‍ट फल की प्राप्ति कर लूँगा। दोनों की प्रगाढ मैत्री थी। इन्‍हें आपस के सहयोग से कठिन से कठिन कार्य साधन में किसी प्रकार का कष्‍ट नहीं होता था। जब इस ढंग से तप करते हुए भी बारह वर्ष बीत ये कुछ भी हासिल न हुआ, यानी देवता प्रसन्‍न नहीं हुए, तब इन दौनों को बड़ा दुख हुआ और एक दूसरे का मुख देखते हुए इस बात के अनुसंधान में लगे कि अब कौन सा यत्‍न किया जायकि, जिससे अभीष्‍ट फल की प्राप्‍ती हो। अपने मित्र सुदामा नाई को चुप देखकर संन्‍यासी बोला- मित्र सुदामा! तुम भलीभॉंति देख रहे हो कि हमें तप साधन करते चौबीस वर्ष का समय बीत गया लेकिन कार्य की सिद्धि न हुई, तब आखिर ऐसा कौन सा उपाय किया जाय कि जगत में हमारी अपकीर्ति ना हो। मेरे मनमें तो यह आता है कि आत्‍महत्‍या के अतिरिक्‍त निवृत्ति का दूसरा मार्ग नहीं है, लेकिन इससे भी मुक्ति नही मिलती इसमें भी एक बात बड़े अड़चन की है। शास्‍त्रकारों ने आत्‍महत्‍या को बड़ा पाप बतलाया है। तब भाई तुम्‍हीं कोई ऐसी युक्ति निकालों जिससे शास्‍त्रानुकूल सुख प्राप्‍त हो। ”गतानि शोचानि कृतत्‍न भवन्‍ने।” अब बीती बातों की चिन्‍तना छोड़ आगे के लिये प्रयत्‍नशील होना चाहिये।

सुदामा मित्र बोला- आप पंडित और ज्ञानी है, मैं केवल आपका अनुयायी सेवक हूँ, शास्‍त्रों के आदेश क्‍या है इसका मुझे कोई गम नहीं, तब इसमें आपही को कोई सोच विचार कर दूसारा उपाय निकालना चाहिये। शुसर्मा बोला- हॉं एक मार्ग है, परंतु जबतक तुम उससे सहमत न हो मैं कैसे कर सकता हूँ। शास्‍त्रों में ऐसा प्रमाण मिलता है कि जो प्राणी त्रिवेणी के तटपर बैठकर आत्‍म विसर्जन करता है उसको आत्‍महत्‍या का पाप नहीं लगता बल्कि अभीष्‍इ फल की प्राप्ति होती है।

सुदामा नाई पंडित सुशर्मा की इस सम्‍मति से सहमत हो गया और वे अपने सामानों का अलग-अलग दो गट्ठर बनाकर एक जगह गाड़कर चलता हुये। वहॉं से चलकर जगत जननी भागीरथी के तटपर आये। सुशर्मा के मन में राज सुख प्राप्‍ति का कांक्षा थी इसलिये वह पृथ्‍वीमंडल का एकक्षत्र राज्‍य प्राप्ति के निमित्‍त और सुदामा को राज कर्मचारी होने की कांक्षा थी अतएव उसने मंत्री पद की अभिरूचि से त्रिवेणी जी के पवित्र जल में प्राण विसर्जन किया। वे मरते समय ध्‍यानमग्‍न हो ईश्‍वर से प्रार्थना कर बोले- भगवन्! इसी जन्‍म के समान पुनर्जन्‍म में भी हमारा साथ इसी प्रकार बना रहे और इस समय की सब बातें हमें स्‍मरण रहें। तीर्थ राज प्रयाग की भूमि जिसमें त्रिवेणी जल का प्रभाव क्‍या कहना, उस जल के पुण्‍य प्रभाव से उनको अभीष्‍ट सिद्धि मिली। अगले जन्‍म में सुशर्मा हिमायूँ बादशाह के घर जन्‍म लेकर अकबर के नाम से विख्‍यात हुआ और सुदामा नाई का जन्‍म उसी नगर के एक कुलीन ब्राहृाण के घर हुआ। इसके पिता के पुकारने का नाम स्‍वप्‍ननाथ था। ब्राहृाणपुत्र स्‍वप्‍नाथ बड़ा ही बुद्धिमानी और प्रतिभाशाली हुआ, जिस कारण थोड़े समय में इसने अच्‍छी विद्या हासिल करली। विद्या और बुद्धि के प्रभाव से बादशाह ने इसको दीवान पदपर नियुक्‍त किया और उसका नाम बदलकर बीरबल रखा।

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