71) मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।
अर्थ: दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं, पर जब वह नहीं मिलता तब वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
72) माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥
अर्थ: मिट्टी कुम्हार से कहती है कि आज तो तू मुझे पैरों के नीचे रोंद रहा है, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा, कि तू मेरे तले होगा| अर्थात, जीवन में मनुष्य चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर मिट्टी हो जाता है|
73) माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहि ।
मनुआ तो चहुं दिश फिरे, यह तो सुमिरन नाहि ॥
अर्थ: माला घुमाने से, या मंत्रो का उच्चारण करने से ध्यान नहीं होता। अर्थात ध्यान होता है मन को स्थिर करने से, क्रियाएं करने से नहीं।
74) मन उन्मना न तोलिये, शब्द के मोल न तोल ।
मुर्ख लोग न जान्सी, आपा खोया बोल ॥
अर्थ: अशांत या व्याकुल अवस्था में किसी के कही हुई बातों का अर्थ नहीं निकलना चाहिए। ऐसी हालत में व्यक्ति शब्दों का सही अर्थ समझने में असमर्थ होता है। मूर्ख लोग इस तथ्य को नहीं जानते, इसलिए किसी भी बात पर अपना संतुलन खो देते हैं ।
75) मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग ।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग ॥
अर्थ: रात दिन भगवान के नाम जपने, और रोज़ साधुओं के साथ संगत करने के बावजूद, कुछ लोगों पर भक्ति का रंग नहीं चढ़ता, क्योंकि वे अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाते।
76) न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥
अर्थ: बार बार नहाने से कुछ नहीं होता, अगर मन साफ़ न हो। अर्थात, बाहरी उपस्थिति से ज़यादा महत्वपूर्ण है मानव का चरित्र और उसका स्वभाव। उदाहरण के लिए, मछली सारी ज़िन्दगी पानी में रहती है, पर ‘धुल’ नहीं पाती – उसमे बदबू फिर भी आती है।
77) पांच पहर धंधा किया, तीन पहर गया सोय |
एक पहर भी नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ||
अर्थ: दिन के आठ पहर में, आप पाँच पहर काम करते हैं, और तीन पहर सोते हैं। अगर ईश्वर को याद करने के लिए आपके पास समय ही नहीं है, तो आपको मोक्ष कैसे मिल सकता है ?
78) पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़ ।
घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाए संसार ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि अगर पत्थर की मूर्ती की पूजा करने से भगवान् मिल जाते तो वे पहाड़ कि पूजा कर लेते। लेकिन मूर्तियों से महत्वपूर्ण वो चक्की है, जिसमे पिसा हुआ अन्न लोगों का पेट भरता है। अर्थात परम्पराओं और प्रथाओं के साथ-साथ अपने काम का भी ध्यान रखना चाहिए।
79) पढी गुनी पाठक भये, समुझाया संसार ।
आपन तो समुझै नहीं, वृथा गया अवतार ॥
अर्थ: कुछ लोग बहुत पढ़-लिखकर दूसरों को उपदेश देते हैं, लेकिन खुद अपनी सीख ग्रहण नहीं करते। ऐसे लोगों की पढ़ाई और ज्ञान व्यर्थ है।
80) पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात ।
अब तो मन हंसा, मोती चुनि-चुनि खात ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि मनुष्य का मन एक कौआ की तरह होता है, जो कुछ भी उठा लेता है। लेकिन एक ग्यानी का मन उस हंस के समान होता है जो केवल मोती खाता है।
81) पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान ।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान ॥
अर्थ: पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी गंध दूर तक फैल जाती है। अर्थात, इसे छुपाना असंभव है।
82) पहले शब्द पहचानिये, पीछे कीजे मोल ।
पारखी परखे रतन को, शब्द का मोल ना तोल ॥
अर्थ: पहले शब्दों का अर्थ पूरी तरह से समझिये। उसके बाद ही उनके कारण या महत्व का विश्लेषण करिये। जौहरी भी केवल रत्नो को तोल सकता है, शब्दों को मापना बहुत कठिन है।
82) फल कारन सेवा करे, करे ना मन से काम |
कहे कबीर सेवक नहीं, चाहे चौगुना दाम ||
अर्थ: कुछ लोग भगवान् का ध्यान फल और वरदान की आशा से करते हैं, भक्ति के लिए नहीं। ऐसे लोग भक्त नहीं, व्यापारी हैं, जो अपने निवेश का चैगुना दाम चाहते हैं।
Prem / Love / Pyar Par Dohe by Kabir Das Ji in Hindi
83) प्रेम न बड़ी उपजी, प्रेम न हात बिकाय |
राजा प्रजा जोही रुचे, शीश दी ले जाय ||
अर्थ: प्रेम न खरीदा जा सकता है, और न ही इसकी फ़सल उगाई जा सकती है। प्रेम के लिए विनम्रता आवश्यक है, जाहे राजा हो या कोई सामान्य व्यक्ति।
84) प्रेम प्याला जो पिए, शीश दक्षिणा दे|
लोभी शीश न दे सके, नामप्रेम का ले ||
अर्थ: जो प्रेम का अनुभव करना चाहता है, उसे अपना जीवन न्योछावर करने के लिए तैयार होना चाहिए। लालची और स्वार्थी मनुष्य कुछ भी त्यागने में असमर्थ हैं – वे प्रेम की कँवल बातें कर सकते हैं, अनुभव नहीं।
85) प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय |
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाए ||
अर्थ: व्यक्ति हे हृदय में प्रेम होना चाहिए, उसका रूप या अवस्था चाहे जो भी हो – चाहे वो महल में रहे या जंगल में।
86) रात गवई सोय के दिवस गवाया खाय |
हीरा जन्म अनमोल था , कौड़ी बदले जाय ||
अर्थ: जो व्यक्ति इस संसार में बिना कोई कर्म किए पूरी रात को सोते हुए और सारे दिन को खाते हुए ही व्यतीत कर देता है वह अपने हीरे तुल्य अमूल्य जीवन को कौड़ियों के भाव व्यर्थ ही गवा देता है ।
87) साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाही ।
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाही ॥
अर्थ: संत केवल भाव व ज्ञान की इच्छा रखते हैं। उन्हें धन का कोई लोभ नहीं होता। जो व्यक्ति साधू बनकर भी धन-संपत्ति के पीछे भागता है, वह संत नहीं हो सकता।
88) सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार ।
लोचन अनँत उघारिया, अनँत दिखावनहार ।।
अर्थ: सद्गुरु की महिमा अनन्त है और उनके उपकार भी अनन्त हैं। उन्होंने मेरी अनन्त दृष्टि खोल दी जिससे मुझे उस अनन्त प्रभु का दर्शन प्राप्त हो गए।
89) सतगुरु मिला तो सब मिले, ना तो मिला न कोय ।
मात पिता सूत बान्धवा, यह तो घर घर होय ॥
अर्थ: जिसने एक सच्चा गुरु पा लिया, उसने मानो सारा संसार पा लिया। माता, पिता, बच्चे और दोस्त तो सभी के होते हैं, लेकिन गुरु का भाग्य सबको नहीं मिलता।
90) श्रम से ही सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नाही ।
सीधे ऊँगली घी जमो, कबसू निकसे नाही ॥
अर्थ: जिस तरह जमे हुए घी को सीधी ऊँगली से निकलना असम्भव है, उसी तरह बिना मेहनत के लक्ष्य को प्राप्त करना सम्भव नहीं है।
91) सोना सज्जन साधू जन, टूट जुड़े सौ बार |
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एइके ढाका दरार ||
अर्थ: सोने को अगर सौ बार भी तोड़ा जाए, तो भी उसे फिर जोड़ा जा सकता है। इसी तरह भले मनुष्य हर अवस्था में भले ही रहते हैं। इसके विपरीत बुरे या दुष्ट लोग कुम्हार के घड़े की तरह होते हैं जो एक बार टूटने पर दुबारा कभी नहीं जुड़ता।
92) सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
अर्थ: अच्छे समय में भगवान् को भूल गए, और संकट के समय ही भगवान् को याद किया। ऐसे भक्त कि प्रार्थना कौन सुनेगा ?
93) सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भौजल माहिं ।
आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥
अर्थ: हे भगवान् ! मुझे याद रखना। मैं इस सागर-रुपी जीवन में बह रहा हूँ, और अगर आपका सहारा न मिला, तो मैं अवश्य ही डूब जाऊंगा।
94) तन की जाने मन की जाने, जाने चित्त की चोरी ।
वह साहब से क्या छिपावे, जिनके हाथ में डोरी ॥
अर्थ: भगवान तो सर्व व्यापी एवं सर्वज्ञ है। वह तुम्हारे मन में छुपी भावनायों को भी जानते हैं। जो ईश्वर सारे संसार को चलाता है, उससे कभी कुछ छिपा नहीं रहता।
95) बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार |
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम आधार ||
अर्थ: बीमार हो या चिकित्सक, दोनों की मौत निश्चित है। इस संसार में हर व्यक्ति का का मरना निश्चित है, लेकिन जिसने राम का सहारा ले लिया हो, वो अमर हो जाता है।
⇐ पढ़ें कबीर दास के दोहे अर्थ सहित हिंदी में 51 से 70 तक।
कबीर दास के दोहे 71 से 95 तक अर्थ सहित हिंदी में kabir ke dohe with meaning in hindi From 71 to 95 Kabir Das Ke Dohe Arth Sahit in Hindi With Images,
Kabir Ke Dohe bahut hi behtreen hain….gyaanvardhak, great thoughts…