जानें पीलिया, पांडु, कामला, जॉन्डिस का आयुर्वेदिक उपचार

रोग परिचय:- इस रोग में शरीर की चमड़ी चर्म का रंग पीला नजर आने लगता है। रोगी की ऑंखों तथा नाखूनों का रंग पीला पड़ जाता है। मूत्र भी पीले रंग का आने लगता है। यह रोग जब अत्‍यधिक बढ़ जाता है, तब रोगी को सब कुछ पीला ही पीला नजर आने लगता है। यहॉं तक कि रोगी को पसीना तक पीला ही निकलता है। यही रोग पीलिया के नाम से जाना जाता है।

पीलिया का आयुर्वेदिक उपचार:-

( Jaundice Ayurvedic Treatment in Hindi )

• फिटकरी को भूनकर बारीक पीसकर शीशी में सुरक्षित कर रख लें। इसे 1 से 3 ग्राम की मात्रा में 20 ग्राम दही में मिलाकर सेवन करायें। दिन में कई बार केवल दही खिलाते रहें। यदि उपलब्‍ध न हो तो छाछ दें। एक सप्‍ताह में रोगी ठीक हो जायेगा।

• सफेद चन्‍दन 5 ग्राम, ऑवा हल्‍दी पिसी हुई 6 ग्राम, दोनों को शहद में मिलाकर सात दिन चटायें, लाभप्रद है।

• कलमी शोरा 10 ग्राम, मिश्री 50 ग्राम, दोनों को खरल करके बारीक कर लें। इसे 3 से 6 ग्राम तक की मात्रा में दिन में 3 बार जल से सेवन करायें। इसके प्रयोग से पाण्‍डु रोग, मूत्र में जलन तथा पेशाब का रुक-रुककर आना ठीक हो जाता है।

• मूली के हरे रंग का रस 450 ग्राम में चीनी इतनी मिला लें कि मीठा जो जाये। तदुपरान्‍त मल-मलके कपड़े से छानकर रोगी को पिला दें। पीते ही लाभ मिलेगा। मात्र सात दिन में रोग जड़ मूल से नष्‍ट हो जायेगा।

• कड़वी तोरई का रस 2-4 बूँद नाक में चढ़ा लें। दवा अंदर जाते ही पीले रंग का पानी निकलना प्रारंभ हो जायेगा। पानी निकलकर रोगी एक ही दिन में ठीक हो जाता है।
नोट- यह दवा बहुत अधिक तेज (उग्र) है। कोमल प्रकृति वालों को सेवन कदापि न करायें। यदि नाक में अधिक जलन महसमस हो तो बाद में गौघृत की नस्‍य लें। यदि ताजा कड़वी तोरई उपलब्‍ध न हो तो सूखी तोरई का टुकड़ा रातभर पानी में भिगोकर उस पानी का प्रयोग करें।

• फिटकरी (एलम) कच्‍ची 20 ग्राम बारीक पीसकर 21 पुडि़या बनाकर प्रतिदिन एक पुडि़या मक्‍खन के साथ सेवन करायें। पुराने से पुराना पाण्‍डु रोग नष्‍ट हो जायेगा।

• बढि़या सफेद फिटकरी भूनकर बारीक (सूक्ष्‍म) पीसकर किसी साफ शीशी में सुरक्षित रख लें। यदि पाण्‍डु रोग 1 माह से अधिक समय का है तो प्रथम दिन 1 ग्राम, दूसरे दिन 2 ग्राम, तीसरे दिन 3 ग्राम तदुपरान्‍त 3 ग्राम नित्‍य दवा फॉककर ऊपर से दही का एक पियाला पिला दिया करें। मात्र 7 दिनों में ही पुराने से पुराना पाण्‍डु रोग जड़ से नष्‍ट हो जायेगा।

• अरण्‍ड के पत्तों का रस 10 से 20 ग्राम तक गाय के कच्‍चे दूध में मिलाकर प्रतिदिन सुबह शाम (दिन में 2 बार) पिलायें। इसके सेवन से 3 से 7 दिनों में पीलिया नष्‍ट हो जाता है।

नोट- इस योग के प्रयोग से यदि किसी को दस्‍त आने लग जाये तब भी चिन्‍ता न करें। दही और चावल खाने को दें। जिसे दस्‍त साफ न होता हो उसे दूध अधिक मात्रा में दें। रोटी बिल्‍कुल ही न दें।

• गिलोय की लता गले में लपेटने से पाण्‍डु व कामला दूर हो जाता है।

• गिलोय के अर्क 50 ग्राम में 20 ग्राम शहद मिलाकर पिलाना पाण्‍डु रोग में परम लाभकारी है।

• नीबू का रस 10 ग्राम, खाँड 20 ग्राम, खाने का सोड़ा 4 रत्ती, नौसादर 2 रत्ती का मिश्रण 10 ग्राम पानी में मिलाकर दिन में 2 बार (प्रात: सायं) पिलाने से पाण्‍डु रोग में लाभ होता है।

• आक के पत्ते 25 नग (वजन में जितने पत्ते हों उतनी ही मिश्री मिलाकर) खरल में 3 दिनों तक इतना घोंटें कि दोनों बिल्‍कुल सुर्मे की भॉंति हो जायें। इसे 2 ग्राम की मात्रा में जल से दें।

• टमाटर के 100 ग्राम रस में 3 ग्राम काला नमक मिलाकर सुबह-शाम खिलाने से पाण्‍डु रोग में लाभ होता जाता है।

• पाण्‍डु रोग जो यकृत की पित्त निकालने वाली नली (Bile Duct) के रुकने से होता है। उसके लिए निम्‍न प्रयोग जो ‘धन्‍वन्‍तरि गुप्‍त सिद्ध प्रयोगांक’ से लिया है तथा कभी निष्‍फल नहीं होता है। इस योग की श्री चंदगी राम जी वर्मा ने एक मुस्लिम फकीर से प्राप्‍त किया था।

नोट:- अन्‍य किसी कारण से उत्पन्न पाण्‍डुता में इस योग से कोई लाभ नहीं होता है तो यह अजमायें। यह योग अत्‍यन्‍त साधारण है किन्‍तु शीघ्र लाभ करता है।

प्रात: काल एक घरेलू मक्‍खी पकड़कर उसे गुड़ में लपेटकर उसे रोगी को निगलवा दें। बस यही योग (दवा) है। पाण्‍डु रोगी जिसका शरीर पीला पड़ गया हो नेत्र व मूत्रादि पीले हो गये हों, पिण्‍डलियों में दर्द इत्‍यादि हो- उसे इस प्रयोग से तत्‍काल लाभ होता है।

प्रथम दिन से ही मूत्र सफेद आने लगता है और नेत्रों का पीलापन कम हो जाता है। दूसरे ही दिन रोगी अपने अंदर उत्‍साह अनुभव करने लगता है तथा तीसरे दिन रोगी रोग मुक्‍त हो जाता है। यह प्रयोग प्रतिदिन एक बार केवल प्रात:काल ही 3 दिन तक करें। लाभप्रद कभी निष्‍फल नहीं होने वाला योग है। किन्‍तु रोगी से इस योग को पूर्णतय: छिपाकर सेवन करायें ताकि घृणा न हो।

• हल्‍दी के महीन चूर्ण 6 ग्राम को मट्ठा में मिलाकर सेवन करायें। पथ्‍य में दही भात (चावल) खिलायें। मात्र 4-5 दिनों में ही पीलिया नष्‍ट हो जायेगी।

• गाय की बछिया का ताजा मूत्र ढ़ाई तोला से चार तोला तक नित्‍य खाली पेट पीने से जलोदर, उदरशूल, कामला, पण्‍डु, यकृत-वृद्धि, प्‍लीहा-वृद्धि, अण्‍डवृद्धि, खाज़-खुजली, कब्जियत, मन्‍दाग्नि, अम्‍लपित्त इत्‍यादि रोग नष्‍ट हो जाते हैं। बच्‍चों को 1 तोला से 2 तोला तक ही सेवन करायें।

• नौसादर, सुहागे का फूला, पंचलवण 2-2 तोला तथा चित्रक-मूल, पीपलामूल, त्रिकटु, भुना जीरा, अजवायन, लोह भस्‍म प्रत्‍येक 1-1 तोला गुड एवं 15 तोला को परस्‍पर कूटकर मिलालें फिर अमृतवान में भरकर सुरक्षित रख लें। तदुपरान्‍त छानकर बोतलों में भर लें। मात्रा 5 माशे से 1 तोला तक दिन में 2 बार भोजन के बाद ढाई तोला जल के साथ दें। वह द्रव (पेय) उदर रोग, प्‍लीहा, यकृत दोष, पान्‍डु, स्त्रियों के गर्भाशय दोष, मंदाग्नि कब्‍ज और उदर शूल इत्‍यादि रोगों को थोड़े ही दिनों में नष्‍ट कर देता है।

• एरन्‍ड के पत्रों का रस 10 ग्राम दूध के साथ मिलाकर नित्‍य प्रात: काल 5 दिनों तक पिलाने से गर्भवती हो होने वाली कामला की प्रारम्भिक अवस्‍था में लाभ होता है।

पीलिया, पान्‍डु नाशक कुछ पेटेन्‍ट आयुर्वेदिक दवाएं।

लिबोमिन टेबलेट (चरक) 1-2 गोली दिन में 2-3 बार दें। यकृत विकार जन्‍य पान्‍डुरोग में उपयोगी है। बच्‍चों के लिए इसका सीरप तथा ड्राप्‍स उपलब्‍ध नहीं है।

लिव 52 टेबलेट व सीरप (हिमालय ड्रग) मात्रा गुण उपर्युक्‍त है।

टेफेरोली (टी.टी. के. ) टेबलेट व सीरप मात्रा गुण उपर्युक्‍त है।

लिबोट्रीट टेबलेट (झन्‍डू) मात्रा गुण उपर्युक्‍त।

लिबरबून टेबलेट, सीरप (मार्तन्‍ड) यकृत विकारजन्‍य पाण्‍डु में दें।

पान्‍डुहारी कैपसूल (गर्ग बनोषधि) 1-2 कैपसूल 2-3 बार। पान्‍डु रोग, रक्‍तक्षय तथा यकृत-विकारों में निरापद कैपसूल ळै।

पान्‍डुनौल कैपसूल (ज्‍वाला आयु) मात्रा-गुण उपर्युक्‍त।

द्राक्षा लौह कुमारी (धन्‍वन्‍तरि कार्या.) 2-4 चम्‍मच समान जल मिलाकर भोजनोपरान्‍त। पान्‍डु नाशक अति उत्तम पेय। क्षुघा बढ़ाता है। यकृत, अन्‍त्र की क्रिया को सामान्‍य अवस्‍था में लाता है।

एनर्जीप्‍लेक्‍स सीरप (मार्तन्‍ड) टेबलेट व सूची बेध। पान्‍डु रोग नाशक एवं शक्ति प्रदाता है।

शंखद्रव सीरप (झन्‍डू) 2 से 5 बूंद तक 1 औस जल में मिलाकर दें।

स्रोत:-
डॉ. ओमप्रकाश सक्सैना ‘निडर’
(M.A., G.A.M.S.) युवा वैद्य आयुवैंदाचार्य जी की पुस्‍तक से

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