दो लघु कथाएँ – अन्‍नदाता का अधिकार & वे चार।

कथा 1 – अन्‍नदाता का अधिकार

मिश्राजी अपने दोस्‍त के यहां आए थे। उनकी बेटी से बोले- ‘बेटा अब एमबीबीएस कंप्‍लीट होने के बाद आपको सरकारी अस्‍पताल में जॉइनिंग मिल गई है। पोस्टिंग कहां हुई है?’

” ग्राम सुनारी में अंकल।”

मेरी बात मानो तो शहर में ही पोस्टिंग करवा लो। पिछले साल मेरे बेटे को अध्‍यापक की पोस्‍टिंग ग्राम जटवाड़ा कला में दे दी गई थी, थोड़ा ले-देकर और राजनितिक पहुंच से हमने उसकी पोस्टिंग शहर में ही करवा दी। वैसे भी आजकल गांवों का तो कोई स्‍टेटस ही नहीं है।

‘अंकल, गांवों में हमारे देश का अन्‍नदाता रहता है। विपरीत परिस्थितियों से लड़कर हमारेहमारे लिए खाद्यान्‍न उगाता है। हम तक अनाज पहुंचाता है। क्‍या उस किसान और उसके परिवार को शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य जैसी मूलभूत सुविधाएं पाने का अधिकार नहीं है? सिर्फ इसलिए कि वो पिछड़ा हुआ है और हमारे जैसी हाई सोसायटी में नहीं रहता?’

वह आगे बोली- ‘आज हम भले ही शहरीकरण के इस दौर में शहरी कहलाए, परंजु हमारे पूर्वज भी गांव में ही निवास करते थे। आज भी हम सब की मूल जड़ें गांवो से ही जुड़ी हुई हैं। अगर हम ही गांवो से मुंह फेर लेंगे तो फिर देश का विकास कैसे होगा। भारत की आत्‍मा गांव में निवास करती है। अगर आत्‍मा ही सुखी नहीं होगी तो यह देश कैसे सुखी होगा?’ वर्षा की बातें सुनकर मिश्राजी शर्मिदा होते हुए वहां से उठकर घर को चल दिए।

– शुभम वैष्‍णव


लघुकथा 2 – वे चार

रेलगाड़ी के इस डिब्‍बे में वे चार हैं, जबकि मैं अकेला हूं। मुझे इस समय यहां उन लोगों के बीच नहीं होना चाहिए। देश के कई हिस्‍सों में दंगे हो रहे हैं। भय की एक महीन गंध जैसे हवा में घुली हुई है। किसी अनहोनी का साया मुझ पर पड़ने लगता है बेचैनी मेरे भीतर फड़फड़ाने लगती है

वे हमसे कितने अलग है। हम सूरज की पूजा करते हैं, वे चांद की। हम बाएं से दाएं लिखते है, वे दाएं से बाएं। हमारे सबसे पवित्र स्‍थल इसी देश में हैं, जबकि उनके देश से बाहर हैं। उनकी नाक, आखें, चेहरे की बनावट, कद-काठी, रूप-रंग सब हमसे कितना अलग है।

वे मुझे घूर क्‍यों रहे हैं? कही आतंकवादी तो नहीं? उके बैग में एके-47 और बम तो नहीं? बदन में कंपकपी सी महसूस हो रही है। प्‍यास के मारे गला सूखा जा रहा है। जीभ तालू से चिपक गई है। चीखना चाहूं तो भी गले से आवाज नहीं निकलेगी। ठंड की शाम में भी बगलें औश्र माथा पसीने से भीग गए हैं। क्‍या आज मैंने बी.पी. की गोली नहीं खाई? नसों में इतना तनाव क्‍यों भर गया है? आंखों के सामने यह अंधेरा क्‍यों छा रहा है? क्‍या मुझे चक्‍कर आ रहा है? मैं बेहोश हो रहा हूं।

गाड़ी रूक चुकी है। शायद स्‍टेशन आ चुका है। वे चारो लोग मुझे सहारा देकर गाड़ी से उतार रहे हैं। अब अस्‍पताल में हूं। उनहोंने फोन करके मेरी पत्‍नी से बोले- ‘इनका बी.पी. बहुत हाई हो गया था। अब ये ठीक हैं।’

पत्‍नी और मुझसे शुक्रिया लेकर वे वापस अपने रास्‍ते चल दिए हैं। जाते हुए उनकी पीठ बड़ी जानी-पहचानी सी लग रही है। जैसे उनकी पीठ पेरे पिता की पीठ हो। जैसे उनकी पीठ मेरे भाई की पीठ हो। ऐसा लग रहा है, जैसे कि मैं उन्‍हें बरसों से जानता हूं।

सुशांत सुप्रिय


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