चरक संहिता में चरक ने न केवल पशुओं के मांस के गुणों की चर्चा की है, उन्होंने शराब की विभिन्न किस्मों पर आयुर्वेद के दृष्टिकोण से चर्चा की है। सुधीजनों के लिये आयुर्वेद के परमपुरूष की राय प्रस्तुत है-
चरक के अनुसार सभी तरह की शराब अम्लीय तथा गर्म होती हैं जो पेट में भी अम्ल रस उत्पन्न करती हैं।
1. मदिरा (आसुत सुरा):- हिचकी, जुकाम, खांसी, कब्ज तथा अरुचि में हितकर तथा वातनाशक है।
2. सुरा:- यह दुबले पतले लोगों को, संग्रहणी तथा बवासीर के रोगियों के लिये लाभदायक है। मूत्र की रुकावट को खोलती है।
3. अरिष्ट(सड़ाकर बनाया हुआ मद्य):- सूजन, बवासीर, संग्रहणी, पीलिया, अरुचि, बुखार आदि रोगों को नष्ट करते हैं।
4. जगल (चावल से तैयार मद्य):- शूल, मरोड़, अफरा और बवासीर में हितकर है। सूजन मिटाने वाली तथा भोजन पचाने में सहायक है। रूखी व गर्म होती है।
5. शर्करा(खांड से तैयार शराब):- मुख को प्रिय, हल्का नशा देने वाली, मसाने के रोग हरने वाली है। अन्न पाचक, रंग निखारने वाली तथा ह्दय के लिये हितकर है।
6. द्राक्षासव (मुनक्के से बनी शराब):- मद्य के समान गुण वाला, अग्निदीपक, ह्रदय के लिये हितकर तथा बलकारक है।
7. अध्वासव (महुए की शराब):- कफ नाशक व तीखा होता है।
8. अंगूर या गन्ने के रस से तैयार माध्वीक अध्वासव जैसा होता है।
9. मैरेय (सुरा और आसव का मिश्रण):- तीक्ष्ण , मधुर और गुरु होता है।
10. धाय के फूलों से तैयार शराब सुखकर, रुचिकर तथा अग्निदीपक होती है।
11. आसव(आसुत मद्य):- बहुत नशीले होते हैं। वायुनाशक तथा स्वादिष्ट होते हैं।
12. गौड़ (गुड़ की शराब):- मल और पेट की वायु को निकालने वाली तथा अग्निदीपक है।
13. प्रक्व रस (गन्ने के रस से तैयार शराब):- रुचिकर, अग्निदीपक, ह्रदय, सूजन व बवासीर रोगियों के लिये हितकर है। घी या तेल ज्यादा खाने से उत्पन्न विकारों को दूर करता है। रंग निखारता है।
14. धान और मूली के टुकड़ों को सड़ाकर तैयार मदिरा को अल्लकाजिक कहते हैं। इसके लेप से जलन व ज्वर नष्ट होते हैं।पीने से कफ नष्ट होता है। दस्तावर और अग्निदीपक होती है।
15. सौवीरक तथा तुषोदक अग्निदीपक और पाचक होते हैं। ह्रदयरोग, पीलिया और पेट के कीड़ों को नष्ट करते हैं। कब्ज दूर करते हैं। संग्रहणी और बवासीर में हितकर होते हैं।गेहूँ-जौ के कच्चे दाने से सौवीरक तथा जौ के कच्चे, बिना छिले दानों से तुषोदक बनता है।
16. मांड युक्त जौ की शराब रुक्ष तथा गर्म, वात-पित्त को बढ़ाने वाली है।यह पेट में वायु पैदा करती है। इसे मधुलिका कहते हैं। यह पूर्णतया किण्वित नहीं होती।
नई शराब भारी तथा दोष बढ़ाती है। पुरानी शराब शरीर के स्रोतों को शुद्ध करती है। अग्निदीपक और रुचिकर होती है। सभी तरह के मद्य हर्षकारक और तृप्तिकर होते हैं। भय, शोक और थकावट दूर करते हैं। चतुरता, शक्ति, संतोष, पुष्टि और बलदायक होते हैं। सात्विक पुरूष यदि विधिपूर्वक और शरीर के दोषों का विचार करके उचित मात्रा में सेवन करें तो अमृत के समान गुणकारी होते हैं। यह चरक के निर्देश हैं।
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