शाम को दफ़्तर से घर आते समय देखा कि एक छोटा-सा बोर्ड रेहड़ी की छत से लटक रहा था जिस पर मार्कर से लिखा हुआ था:
घर मे कोई नही है, मेरी बूढ़ी माँ बीमार है, मुझे थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें खाना, दवा और हाजत कराने के लिए घर जाना पड़ता है, अगर आपको जल्दी है तो अपनी इच्छा से फल तौल लें और पैसे कोने पर गत्ते के नीचे रख दें।साथ ही मूल्य भी लिखे हुये हैं
…और यदि आपके पास पैसे न हों तो मेरी ओर से ले लेना…अनुमति है।
मैंने इधर-उधर देखा। पास पड़े तराज़ू में दो किलो सेब तौले, एक दर्जन केले लिए…बैग में डाले…प्राइस लिस्ट से कीमत देखी…पैसे निकालकर गत्ते को उठाया… वहाँ सौ, पचास और दस-दस के नोट पड़े थे। मैंने भी पैसे उसमें रख कर उसे ढक दिया। बैग उठाया और घर आ गया। खाना खाकर श्रीमती और मैं घूमते-घूमते उधर से निकले तो देखा एक कृशकाय अधेड़ आयु का व्यक्ति मैले से कुर्ते-पाज़ामे में रेहड़ी को धक्का लगा कर बस जाने ही वाला था। वह हमें देख कर मुस्कुराया और बोला, “साहब! फल तो ख़त्म हो गए।
मैनें यूँ ही बात करने के इरादे से उसका नाम पूछा। उसने बताया भी लेकिन मैंने सुना-अनसुना कर दिया और उत्सुकतावश रेहड़ी पर टंगे बोर्ड के बारे में जानना चाहा तो उसने बताया, “पिछले तीन साल से अम्मा बिस्तर पर हैं, कुछ पागल-सी भी हो गईं हैं और अब तो उसे लकवा भी हो गया है। मेरी कोई संतान नहीं है। पत्नी स्वर्ग सिधार चुकी है। अब केवल मैं हूँ और माँ..! माँ की देखभाल करने वाला कोई नही है इसलिए मुझे हर समय माँ का ध्यान रखना पड़ता है।”
एक दिन मैंने माँ के पाँव दबाते हुए बड़ी नरमी से कहा, “माँ! तेरी सेवा को तो बड़ा जी चाहता है। पर जेब खाली है और तू मुझे कमरे से बाहर निकलने नहीं देती। कहती है – तू जाता है तो जी घबराने लगता है। तू ही बता मै क्या करूँ? अब आसमान से तो खाना उतरेगा नहीं।
ये सुन कर माँ कमज़ोर-सी हँसी हँसी और हाँफते-काँपते उठने की कोशिश की। मैंने तकिये की टेक लगाई। माँ ने झुर्रियों वाला चेहरा उठाया, अपने कमज़ोर हाथों को नमस्कार की मुद्रा में जोड़ा और भगवान से होठों-होठों में बुदबुदाकर न जाने क्या बात की, फिर बोली…
“तू रेहड़ी वहीं छोड़ आया कर हमारे भाग्य का हमें इसी कमरे में बैठ कर मिलेगा।”
“मैंने कहा, माँ क्या बात करती हो। वहाँ छोड़ आऊँगा तो कोई चोर-उचक्का सब कुछ ले जायेगा। आजकल कौन किसी की मजबूरी देखता है? और बिना मालिक के कौन फल ख़रीदने आएगा?”
माँ कहने लगी, “तू सुबह भगवान का नाम लेकर रेहड़ी को फलों से भरकर छोड़ आया कर और रोज़ शाम को खाली रेहड़ी ले आया कर, बस। मुझसे ज़्यादा ज़ुबानज़ोरी मत कर। मुझे अपने भगवान पर भरोसा है। अगर तेरा नुक़सान हो तो कहना।”
ढाई साल हो गए हैं भाईसाहब… सुबह रेहड़ी लगा आता हूँ शाम को ले आता हूँ। लोग पैसे रख जाते है, फल ले जाते हैं। एक धेला भी ऊपर-नीचे नही होता बल्कि कुछ तो ज़्यादा भी रख जाते हैं।कभी कोई माँ के लिए फूल रख जाता है,कभी कोई और चीज़। परसों एक बच्ची पुलाव बना कर रख गयी साथ मे एक पर्ची भी थी – “माँ के लिए”
एक डॉक्टर साहब अपना कार्ड छोड़ गए। पीछे लिखा था…माँ की तबियत नाज़ुक हो तो मुझे कॉल कर लेना, मैं आ जाऊँगा। यह मेरी माँ की सेवा का फल है या माँ की दुआओं की शक्ति, नहीं जानता।
न मेरी माँ अपने पास से हिलने देती है न मेरा भगवान मेरा रिज़्क़ रुकने देता है। माँ कहती है भगवान तेरे फल देवदूतों से बिकवा देता है। पता नहीं…माँ भोली है या मैं अज्ञानी।
मैं तो केवल इतना ही समझ पाया कि हम अपने माँ-बाप की सेवा करें तो ईश्वर स्वयं हमें सफल बनाने के लिए अग्रसर हो जाता है।
वह कहकर चला गया और मैं वहीं खड़ा रह गया। अवाक! किन्तु श्रद्धा से सराबोर।
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